गीता प्रेस, गोरखपुर >> भक्त बालक भक्त बालकहनुमानप्रसाद पोद्दार
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भगवान् की महिमा का वर्णन...
मन्त्रीको बड़ा खेद है; परंतु कोई उपाय नहीं! मन्त्रीने सुधन्वासे अनेक प्रकारसे क्षमा-प्रार्थना कर अपना कर्तव्य निवेदन किया। सुधन्वाने धीरतासे कहा-‘मन्त्रिवर! आपको महाराजकी आज्ञाका अवश्य पालन करना चाहिये। श्रीपरशुरामजीने पिताके वचन मानकर माताका मस्तक काट डाला था। मुझे अपनी मृत्युका कोई भय नहीं है। आप निःसंकोच मुझे तैलमें डलवा दीजिये। सब लोगोंने मन्त्रमुग्धकी तरह सुधन्वाकी बातें सुनीं। चारों ओर लोगोंकी आँखोंसे आँसुओंकी धारा बहने लगी। परंतु सुधन्वा प्रसन्नचित्त है। उसने दिव्य वस्त्र धारण कर, तुलसीकी माला गलेमें पहन ली और भगवान् वासुदेव श्रीकृष्णका स्मरण करते हुए वह श्रीकृष्णके प्रति यों कहता हुआ तैलके कड़ाहेमें कूद पड़ा-‘हे हरे! हे गोविन्द!! हे भक्त-भयभञ्जन!!! मुझे मरनेको तनिक भी भय नहीं है, मैं तो आपके चरणों में प्राण देनेको ही तो आया था, परंतु आपका तिरस्कार कर मैंने बीचमें ही जो कामकी सेवा की, इसीसे मालूम होता है मैं आपके प्रत्यक्ष दर्शनसे वञ्चित रहता हूँ और इसीसे हे प्रभो! सम्भवतः आप मेरी रक्षाके लिये इस समय हाथ नहीं बढ़ा रहे हैं। जो लोग केवल भयसे व्याकुल होकर कष्टमें पड़कर ही आपका स्मरण करते हैं, मालूम होता है उन्हें सुखकी प्राप्ति नहीं होती। भक्त प्रह्लाद, ध्रुव, द्रौपदी और गोपादिने पहले भी आपका स्मरण किया था, इसीसे विपत्तिके समय आपने उनकी रक्षा की। अन्तकालमें आपका ध्यान करनेसे मनुष्य आपको प्राप्त होता है, इससे हे जनार्दन! मैं आपको प्राप्त तो अवश्य करूंगा, परंतु लोग अवश्य यह कहेंगे कि सुधन्वा वीर होकर भी युद्धसे विमुख होकर कड़ाहेमें जलकर मरा। आपके भक्त वीर अर्जुनको और आपको युद्धक्षेत्रमें बाण-वर्षासे प्रसन्न करके तथा गाण्डीव धनुषके छूटे हुए नुकीले बाणोंसे खण्ड-खण्ड होकर मरता तो कोई चिन्ता नहीं थी, परंतु आज अपराधी चोरकी भाँति मर रहा हूँ। इसलिये यदि आप इस बालकका इस प्रकार मरणको प्राप्त होना अनुचित समझते हैं तो अग्नि-दाहसे बचाकर इस शरीरको अपने चरणोंके सामने गिराइये! मैं तो आपका ही हूँ, आपका ही रहूँगा। आप सब प्रकार समर्थ हैं, लज्जारूपी समुद्रमें पड़ी हुई द्रौपदीका पितामह भीष्म और गुरु द्रोणाचार्यके सामने आपने वस्त्रावतार धारण कर उद्धार किया था।
प्रभुकी लीला विचित्र है। एक दिन प्रह्लादके लिये प्रभूने अग्निको शीतल कर दिया था। एक दिन इन्द्रादि देवोंका दर्प चूर्ण करनेके लिये दर्पहारीने दावानलकी दाहशक्ति हर ली थी। आज भक्त सुधन्वाको बचानेके लिये भी तैल ऐसा शीतल हो गया जैसा सज्जनोंका चित्त होता है। ‘तैलं सुशीतलं जातं सज्जनस्येव मानसम्'। सुधन्वा प्रेमसे ‘गोविन्द, दामोदर, माधव आदि हरिके पवित्र नामोंका कीर्तन करता हुआ तनकी सुधि भूल गया। कड़ाहेमें उसकी प्रेम-समाधि हो गयी। उबलते हुए तैलमें पड़कर भी सुधन्वा जल नहीं रहा है और तैलके ऊपर-ऊपर तैर रहा है, यह देखकर लोगोंके आश्चर्यका पार नहीं रहा। राजा हंसध्वज भी दोनों पुरोहितोंको साथ लिये इससे पहले ही पहुँच गये थे। राजाको बड़ा विस्मय हुआ।
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