गीता प्रेस, गोरखपुर >> भक्त बालक भक्त बालकहनुमानप्रसाद पोद्दार
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भगवान् की महिमा का वर्णन...
युद्धक्षेत्रमें वीरोंके दल-के-दल इकट्ठे हो रहे हैं। चारों ओर रण-दुन्दुभि और शङ्खध्वनि हो रही है। चारों कुमार और समस्त सेनानायकोंने आकर महाराज हंसध्वजका अभिवादन किया। परंतु वीरश्रेष्ठ राजकुमार सुधन्वा अभी नहीं पहुँचे। महाराजने सेनापतिसे कहा, 'क्या बात है; मैं सुधन्वाको नहीं देख रहा हूँ। इतना प्रमाद उसने कैसे किया, क्या वह मेरी कठिन आज्ञाको भूल गया? उसने बड़ा बुरा किया, परंतु कुछ सैनिक जायें और उस दुष्टके केश पकड़कर पृथ्वीपर घसीटते हुए तैलके कड़ाहेके पास ले आवें।' कठिन राजाज्ञाको पाकर कुछ सिपाही चले। सुधन्वाजी उन लोगोंको राहमें मिले। मर्माहत हृदयसे कठोर राजाज्ञा सुनानेका कठिन कर्तव्य सिपाहियोंको पालन करना पड़ा। सुधन्वाने पिताके चरणों में पहुँचकर अत्यन्त विनयसे प्रणाम किया और विलम्ब होनेका कारण संक्षेपसे सुना दिया। राजा हंसध्वज क्रोधसे अधीर हो रहे थे। उन्होंने कहा-“तू बड़ा मूर्ख है। भगवान् श्रीहरिकी कृपा बिना केवल पुत्रसे कभी सद्गति नहीं मिल सकती। यदि पुत्रवानोंकी ही सद्गति होती हो तो कुत्ते और शूकरोंकी तो अवश्य ही होनी चाहिये। तेरे बल, विचार और धर्मको धिक्कार है। जो श्रीकृष्णका नाम सुन लेनेपर भी तेरा मन कामके वश हो गया, ऐसे मलिनमन, काम-रत, कृष्ण-विमुख कुपुत्रको उबलते हुए तैलके कड़ाहेमें डुबो देना ही उचित है।' सुधन्वाने मस्तक नीचा किये धैर्यपूर्वक सारी बातें सुन लीं।
राजाने पुरोहित शङ्ख-लिखितके पास व्यवस्थाके लिये दूत भेजे। पुरोहितजी बड़े क्रोधी थे, उन्होंने दूतोंकी बात सुनते ही कहा कि ‘राजा अपने पुत्रके कारण मोहसे व्यवस्था पूछता है। जब सबके लिये एक ही विधान निश्चित था तब व्यवस्थाकी कौन-सी बात है? जो मन्दात्मा लोभ या भयसे अपने वचनोंका पालन नहीं करता, वह बहुत कालतक नरकके दारुण दुःख भोगता है। राजा हरिश्चन्द्र और दशरथ-कुमार श्रीरामचन्द्रने वचनोंके पालनके लिये कैसे-कैसे कष्ट सहन किये थे। आज हंसध्वज पुत्रस्नेहके कारण अपने वचन असत्य करना चाहता है तो हम ऐसे अधर्मी राजाके राज्यमें रहना ही नहीं चाहते।' इतना कहकर दोनों कट्टर ऋषि चल दिये। दूतोंने जाकर सब समाचार राजाको सुनाये। राजा हंसध्वज मन्त्रीको यह आज्ञा देकर कि ‘सुधन्वाको उबलते तैलके कड़ाहेमें डाल दो' पुरोहितोंको मनाने चले।
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