गीता प्रेस, गोरखपुर >> भक्त बालक भक्त बालकहनुमानप्रसाद पोद्दार
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भगवान् की महिमा का वर्णन...
अतएव-
राजानं राजपुत्रांश्च सैन्यं पावय सुव्रत।
उत्तिष्ठ वत्स तैलात्त्वं मां समुद्धर भूपज॥
कृष्णोऽयं पाण्डवस्थाथ सारथ्यं प्रकरोति च।।
अर्जुनेनाद्य संग्रामं कुरु वीर यथोचितम्॥
‘हे पवित्र राजकुमार! हे वत्स! उठ खड़ा हो। तैलसे बाहर निकलकर अपने पिता, चारों बड़े भाई और सारी सेनाको पावन कर, साथ ही मेरा भी उद्धार कर। हे वीर! भगवान् श्रीकृष्ण जिस अपने भक्त अर्जुनका सारथीपन करते हैं, उस अर्जुनके साथ रणाङ्गणमें यथायोग्य युद्ध कर।'
मुनिके साथ सुधन्वा बाहर निकलकर पिताके पास आये। मुनिने सुधन्वाके भक्तिभाव तथा अमित प्रभावकी राजाके सामने बड़ी प्रशंसा की। राजाने पुत्रको हृदयसे लगा लिया और गद्दकण्ठसे कल्याणाशीर्वाद देते हुए युद्धके अनुपम अतिथि अर्जुनका यथोचित सत्कार करनेकी आज्ञा दी।
पितृ-आज्ञा प्राप्तकर सुधन्वा सुन्दर रथपर सवार होकर तुरंत युद्धस्थलमें जा पहुँचे। दोनों ओर भाँति-भाँतिके रणवाद्य बज उठे। शङ्खोंकी तुमुल ध्वनि होने लगी। वाद्यों और रथ, घोड़े तथा हाथियोंके गर्जनसे पृथ्वी काँप उठी। भीषण युद्ध आरम्भ हो गया। पाण्डवोंकी ओर महावीर अर्जुनके नेतृत्वमें अपार सेनासहित श्रीकृष्णात्मज प्रद्युम्न, कर्णपुत्र वृषकेतु, कृतवर्मा, सात्यकि, अनुशाल्व आदि प्रसिद्ध वीर हैं। इधर सुधन्वाके नेतृत्वमें राजा हंसध्वजकी विपुल वाहिनी है। श्रीकृष्ण-भक्त वीर क्षत्रिय-कुमार सुधन्वाने क्रमशः वृषकेतु, प्रद्युम्न, कृतवर्मा, सात्यकि और अनुशाल्व आदि सभी वीरोंको पराजय प्रदान कर दी। महासंग्रामके अनन्तर सबको हार मानकर या घायल होकर रणक्षेत्रसे हट जानेके लिये बाध्य होना पड़ा। अन्तमें स्वयं अर्जुन सामने आये। दोनों ही ओर भगवान्के अनन्य भक्त और अजेय योद्धा हैं। भेद इतना ही है कि अर्जुन बड़े-बड़े युद्धोंके अनुभवी वीर हैं, सुधन्वा अभी नवीन रणबाँकुरे। अर्जुनको अपनी भक्ति और वीरताका कुछ दर्प है; सुधन्वा सर्वथा भगवान्के भरोसेपर हैं। इसीसे आज भगवान् यह प्रत्यक्ष दिखला देना चाहते हैं कि न तो भक्तिका कोई ठेकेदार है और न वीरताका ही। सबसे बड़ी बात यह दिखलानी है कि भगवान् श्रीकृष्णके सहायक और साथी न रहनेपर अर्जुन एक बालकसे भी रणमें हार सकते हैं।
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