गीता प्रेस, गोरखपुर >> भक्त बालक भक्त बालकहनुमानप्रसाद पोद्दार
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भगवान् की महिमा का वर्णन...
अर्जुनने सुधन्वाके सामने आते ही उनसे कहा, “वीर युवक! मैंने बड़े-बड़े युद्धोंमें विजय प्राप्त की है। महावीर गुरु द्रोण, पितामह भीष्म, कुलगुरु कृपाचार्य और महात्मा कर्णके साथ भी मैंने युद्ध किया है। भगवान् शिव तथा बड़े-बड़े दैत्योंसे भी मैं संग्राममें जूझा हूँ, परंतु तेरे समान रणशूर मुझे कहीं नहीं मिला। मुझे तुझको देखकर जितना आश्चर्य हुआ, उतना और कहीं नहीं हुआ—‘तथा न विस्मयो जातो यथा त्वां वीक्ष्य जायते?'
सुधन्वा बोले, ‘वीरवर! पहलेके युद्धों में आपके परम हितकारी भगवान् श्रीकृष्ण बड़ी सावधानीसे रथपर बैठे हुए सारथिका काम करते थे। आज आप श्रीकृष्णविहीन हैं, इसीसे आपको आश्चर्य हो रहा है। आपने श्रीकृष्णको कैसे त्याग दिया है? कहीं श्रीकृष्णने तो मेरे साथ युद्ध करनेमें आपको नहीं छोड़ दिया? बतलाइये, आप मुझसे युद्ध करनेमें समर्थ हैं या नहीं?' सुधन्वाके वचन सुनकर अर्जुनने क्रोधित हो उनपर बाणवर्षा आरम्भ की। सुधन्वाने हँसते हुए बात-की-बातमें उनके सारे दिव्य बाणोंको काट डाला-‘सुधन्वा ताञ्छरान् दिव्यांश्चिच्छेद प्रहसन्निव।
बड़ा भयानक युद्ध हुआ। अर्जुनने अपनी सारी कुशलतासे काम लिया; परंतु सुधन्वाके सामने एक भी नहीं चली। वीर भक्त बालक सुधन्वाकी युद्धनिपुणता और अनवरत बाणवर्षासे अर्जुन घबरा उठे, उनका सारथि हत होकर गिर पड़ा। यह देखकर सुधन्वाने हँसते हुए कहा-
शरैः क्षतोऽसि पार्थ त्वं पौरुषं क्व गतं च ते।
सर्वज्ञं सारथिं त्यक्त्वा प्राकृतः सारथिः कृतः॥
स्मर स्वसूतं कृष्णाख्यं ममाग्रे पतितो ह्यसि॥
‘हे पार्थ! आप मेरे बाणोंसे घायल हो गये हैं, आज आपका पुरुषार्थ कहाँ चला गया? वीरवर! आपने अपने सर्वज्ञ सारथिको छोड़कर बदलेमें साधारण सारथिकी नियुक्ति कर बड़ी भूल की है। आप मेरे सामने युद्धमें गिर पड़े हैं, अतएव शीघ्र अपने श्रीकृष्ण नामक सारथिका स्मरण कीजिये।
अर्जुनने अपने बायें हाथसे धनुषसहित घोड़ोंकी लगाम पकड़कर, लड़ना शुरू किया और मन-ही-मन अपने जीवनाधार जगदाधार श्रीकृष्णका आर्तभावसे स्मरण किया। स्मरण ही करनेकी देर थी, तुरंत भगवान् श्रीकृष्ण रथपर आ बैठे, अर्जुनसे यह कहते हुए दिखायी दिये कि 'भाई घोड़ोंकी लगाम छोड़ दो'-
‘मुञ्च चाश्वानर्जुनेति व्याजहार वचो हरिः।'
भगवान् वासुदेवको समागत देखकर अर्जुन और सुधन्वा दोनोंने ही प्रणाम किया। अर्जुनको तो हर्ष होना स्वाभाविक ही था, परंतु सुधन्वाके हर्षका रंग कुछ दूसरा ही है। जिस कार्यके लिये माता-पिताकी आज्ञा और प्रिया पत्नीके परामर्शसे रणक्षेत्रमें आकर अर्जुनको छकाया था, वह शुभ कार्य तो अभी सम्पन्न हुआ है। भगवान्की दिव्यरूप-माधुरी और उनकी अतुलनीय भक्तवत्सलताको देखकर सुधन्वा कृतार्थ हो गये।
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