गीता प्रेस, गोरखपुर >> भक्त बालक भक्त बालकहनुमानप्रसाद पोद्दार
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भगवान् की महिमा का वर्णन...
मोहन-माँ! मेरा गोपालभाई कभी अपने घर नहीं आता?
ब्राह्मणी-आता क्यों नहीं? वह तो सदा यहीं रहता है।
मोहन–क्या तुमने उसे कभी देखा है?
ब्राह्मणी–ना! मैंने उसे नहीं देखा, मैं उसके लिये कभी व्याकुल नहीं हुई। परंतु मैं जानती हूँ कि व्याकुल होनेपर वह अवश्य दर्शन देता है।
मोहन-तो तू व्याकुल क्यों नहीं होती? ऐसे सुन्दर रूप और सुन्दर स्वभाववालेको देखे बिना तुझसे कैसे रहा जा सकता है? माँ! मैं तो उसे देखे बिना नहीं रहूँगा। मुझे बता, मैं उसके लिये कैसे व्याकुल होऊँ?
ब्राह्मणी-बेटा! जैसे भूख लगनेपर तू भोजनके लिये व्याकुल होता है, जैसे प्यास लगनेपर जलकी पुकार मचाने लगता है, जैसे आज जंगलमें तू मुझे पानेके लिये घबरा रहा था, ऐसे ही व्याकुल होकर पुकारनेसे वह अवश्य आता है। उस दिन मैंने तुझको एक कहानी सुनायी थी न, क्या तू उसे भूल गया? पाण्डवोंकी स्त्री द्रौपदीको जब दुष्ट दुःशासन सभामें नंगी करने लगा, तब उसने व्याकुल होकर पुकारा था; उसकी पुकार सुनते ही मेरा गोपाल वहाँ आ गया था।
मोहन–क्या वही मेरा गोपाल भाई है?
ब्राह्मणी–हाँ बेटा! वही है। पुकारते ही वह आता है और सारे संकटोंको हर लेता है।
मोहन-तो माँ! मैं क्या करूं? कैसे पुकारूं?
ब्राह्मणीने अटल विश्वासके साथ कहा, ‘सुन! तू जिस जंगलसे होकर जाता है, उसी जंगलमें तेरा गोपालभाई रहता है। उसे हृदयसे पुकारना, तेरी व्याकुल पुकार सुनते ही वह आकर तेरे साथ हो जायगा!'
सरल विश्वासी बालकने दूसरे दिन वनमें प्रवेश करते ही इधर-उधर ताककर पुकारा, ‘भाई! गोपालभाई!! तुम कहाँ हो? आओ, मुझे डर लगता है!' बालकको सुनायी दिया, मानो कोई कह रहा है, ‘हाँ यहीं हूँ आया!' मीठी आवाज सुनते ही बालकको ढाढ़स हो गया, उसका भय भाग गया, कुछ ही दूर चलनेके बाद उसने देखा कि उसीकी-सी उम्रका एक छोटा नयन-मन-हारी सुकुमार श्यामसुन्दर ग्वाल-बालक वनके वृक्षसमूहोंमेंसे निकलकर उसके साथ खेलने लगा, प्यारसे बातचीत करने लगा और हाथ पकड़कर साथ-साथ चलने लगा। गोपालके आते ही मोहनका सारा दुःख दूर हो गया। मोहनने घर आकर मातासे सारा हाल सुना दिया। ब्राह्मणी भगवान्की दया समझकर रो पड़ी। उसने सोचा-‘जिस दयामयने बालक ध्रुवकी पुकार सुनकर उसे दर्शन दिया था, वही मेरे बच्चेकी पुकारपर आ गया हो तो क्या आश्चर्य है!'
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