धर्म एवं दर्शन >> हमारे पूज्य देवी-देवता हमारे पूज्य देवी-देवतास्वामी अवधेशानन्द गिरि
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’देवता’ का अर्थ दिव्य गुणों से संपन्न महान व्यक्तित्वों से है। जो सदा, बिना किसी अपेक्षा के सभी को देता है, उसे भी ’देवता’ कहा जाता है...
ज्ञानदायिनी सरस्वती
शास्त्रों के अनुसार अंधकार अज्ञान का प्रतीक है और ज्ञान प्रकाश का प्रतीक है। जैसे अंधकार होने पर कक्ष में रखी वस्तुएं नहीं दिखाई देतीं, उन्हें देखने के लिए प्रकाश की आवश्यकता होती है, वैसे ही अज्ञानी व्यक्ति को अज्ञान के कारण अपने कल्याण का मार्ग नहीं दिखाई देता। उसे देखने के लिए ज्ञान चाहिए और ज्ञान प्राप्त होता है-ज्ञान की स्वामिनी सरस्वती की कृपा से।
ऐसा कौन विद्वान हुआ है जिसने ज्ञान प्राप्त करने के लिए ज्ञानेश्वरी सरस्वती के चरणारविंदों में अपना माथा न रगड़ा हो। विद्वान व्यक्ति का संसार
में सर्वत्र सम्मान होता है। जिनकी कृपा से आम व्यक्ति विश्व-पूज्य बन जाता है, वे ज्ञानदायिनी देवी सरस्वती ही हैं।
भगवती सरस्वती अनादि शक्ति हैं। वे सृष्टिकर्ता ब्रह्मा जी की पत्नी हैं और उनके सृष्टि कार्य में सहयोग करती हैं। वे सत्वरूपा, श्रुतिरूपा और आनंदरूपा हैं। वे ज्ञान स्वरूपा वेद, वेदांग और समस्त विद्याओं की स्रोत हैं। समस्त विश्व में सुख-सौंदर्य का सृजन वही करती हैं। मनुष्यों को ज्ञान, विद्या, कला और प्रतिभा सरस्वती की ही कृपा से प्राप्त होती है। उन्हीं के आशीर्वाद से मनुष्य को कार्य करने का ज्ञान प्राप्त होता है। सत्-असत् का विवेक उन्हीं की कृपा का सच्चा प्रसाद है। कुंद के फूल, चंद्रमा और बर्फ के समान उनका श्वेत वर्ण है। वे श्वेत कपड़े धारण किए हुए हैं। उनके हाथों में वीणा, पुस्तक और स्फटिक मणि की माला सुशोभित है। हंस उनका वाहन है और वे श्वेत कमल के आसन पर बैठी हुई हैं। ब्रह्मा, विष्णु और महेश उनकी स्तुति करते हैं।
भारतवर्ष में वीणावादिनी सरस्वती देवी की उपासना सदा से होती आई है। पहले प्रत्येक कवि भगवती सरस्वती के चरण-कमलों का स्मरण करके ही अपना कर्म (काव्य रचना) प्रारंभ करता था। हमारे देश की यही सनातन परंपरा रही है। महाकवि कालिदास ने सरस्वती की उपासना करके उन्हें प्रसन्न किया था। जिस 'उत्तर मीमांसा दर्शन' (ब्रह्मसूत्र) का विभिन्न आचार्यों-आद्यजगत गुरु श्री शंकराचार्य, श्री रामानुजाचार्य, श्री मध्वाचार्य, श्री निंबार्काचार्य और श्री वल्लभाचार्य ने अपने-अपने दृष्टिकोण से भाष्य कर संप्रदायों के भवन खड़े किए हैं, उस ब्रह्मसूत्र के रचनाकार भगवान वेदव्यास ने भी अपने महान ग्रंथ ‘महाभारत' के प्रारंभ में भगवती सरस्वती की श्रद्धा भक्ति से वंदना की है।
सरस्वती देवी की महिमा और लीलाओं से धर्मग्रंथ भरे पड़े हैं। समस्त वांग्मय, समस्त कलाएं और संपूर्ण विज्ञान उन्हीं का वरदान है। किंतु आज का मनुष्य सरस्वती देवी की कृपा से प्राप्त ज्ञान-शक्ति का दुरुपयोग करके अपना नाश कर रहा है और उनको भी अप्रसन्न कर रहा है।
सरस्वती के वरदान का सदुपयोग है-ज्ञान-प्रतिभा और विचार को भगवान में लगा देना। इसी में उनके वरदान की सफलता है और इसी से वे प्रसन्न होती हैं। जो मनुष्य भगवती सरस्वती के चरणों में भक्ति रखकर उनका भजन करते हैं, वे इस पंचभौतिक शरीर से ही देवता बन जाते हैं।
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