धर्म एवं दर्शन >> हमारे पूज्य देवी-देवता हमारे पूज्य देवी-देवतास्वामी अवधेशानन्द गिरि
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’देवता’ का अर्थ दिव्य गुणों से संपन्न महान व्यक्तित्वों से है। जो सदा, बिना किसी अपेक्षा के सभी को देता है, उसे भी ’देवता’ कहा जाता है...
भगवती सती
सृष्टि से पूर्व सर्वत्र घोर अंधकार था, केवल एक निर्गुण ब्रह्म था। वही संसार का एक मूल तत्व है। सृष्टि का समय आने पर मायाशून्य निर्गुण ब्रह्म ने एक से अनेक होने की इच्छा प्रकट की। तब वह सदाशिव रूप में प्रकट हो गया और उसने अपने विग्रह से अपनी शक्ति शिवा को प्रकट किया। उसी एक तत्व का वेदों में शक्ति और शक्तिमान के रूप में उल्लेख है। शिवा प्रलयकर्ता की संहारक शक्ति हैं। वे प्रलयकर्ता शिव हैं तो ये शिवानी हैं। वे महादेव हैं तो ये महादेवी हैं। वे रुद्र हैं तो ये रुद्राणी हैं। वे महाकाल हैं तो ये महाकाली हैं। वही एक तत्व परम पुरुष और पराशक्ति के रूप में द्विविध हो गया।
आगे चलकर श्री शिव ने विष्णु की उत्पत्ति की और विष्णु ने ब्रह्मा को उत्पन्न किया। सृष्टिकर्ता ब्रह्मा के प्राण से दक्ष की उत्पत्ति हुई। लोकमंगल करने के लिए शिवा ही प्रजापति दक्ष के घर पुत्री के रूप में प्रकट हुईं जो सती के नाम से प्रसिद्ध हुईं। सती ने शिव को वर रूप में पाने के लिए घोर तप किया। उनके तप से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने सती को अपनी अर्धांगिनी बना लिया और कैलास पर्वत पर सती के साथ विहार करने लगे। शिव और शिवा वाणी एवं अर्थ के समान अभिन्न हैं। वे शक्ति और शक्तिमान हैं। दोनों ही लोकमंगल के लिए मधुर-पावन लीलाएं करते हैं।
एक बार भगवान शिव सती के साथ अगस्त्य ऋषि के आश्रम में भगवान श्रीराम की कथा सुनकर अपने धाम जा रहे थे। दंडकारण्य में उन्होंने लक्ष्मण सहित श्रीराम को देखा जो पत्नी सीता के वियोग में मनुष्य की भांति व्याकुल होकर विलाप कर रहे थे। भगवान शिव ने उन्हें दूर से ही प्रणाम किया। ऐसे में भगवती सती को संदेह हुआ। शिव ने सती को समझाया लेकिन उन्हें विश्वास नहीं हुआ कि वे भगवान श्रीराम हैं।
अंत में शिव ने उनसे कहा कि अगर विश्वास न हो तो जाकर परीक्षा ले लो। जब सती सीता के रूप में श्रीराम के सामने प्रकट हुईं तो भगवान श्रीराम उन्हें प्रणाम करके कोमल वाणी में बोले, "मां, शिव जी कहां हैं? आप वन में अकेली क्यों फिर रही हैं?'' सती लज्जित होकर वहां से चली आईं। शिव के पूछने पर उन्होंने बताया कि मैंने उनकी कोई परीक्षा नहीं ली वरन प्रणाम ही किया। सर्वज्ञ शिव ने ध्यान करके सती द्वारा ली गई परीक्षा को जान लिया। माता सीता का रूप धारण करने के कारण शिव ने सती का परित्याग कर उन्हें पत्नी के रूप में अंगीकार न करने का प्रण कर लिया।
शिव ने अखंड समाधि लगा ली। सती पति से किए छल के पश्चाताप की आग में झुलसती रहीं। हजारों वर्ष बाद शिव की समाधि टूटी। उन्हीं दिनों सती के पिता दक्ष ने एक बड़ा यज्ञ किया जिसमें सभी देवता आमंत्रित थे लेकिन शिव को निमंत्रण नहीं दिया गया। सती यज्ञ में जाने का हठ करने लगीं तो शिव ने गणों के साथ उन्हें भेज दिया। वहां सती शिव का अपमान सहन न कर सकीं और योगानल में भस्म हो गईं। तब शिवगणों ने यज्ञ का विध्वंस कर दिया। शिव सती की ठटरी को कंधे पर रखकर आकाश में विचरने लगे। शिव का मोह दूर करने के लिए श्री विष्णु ने सुदर्शन चक्र से उस ठटरी के टुकड़े-टुकड़े कर दिए। जहां-जहां सती के अंग गिरे, वहां-वहां देवी के सिद्ध पीठ बन गए।
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