धर्म एवं दर्शन >> हमारे पूज्य देवी-देवता हमारे पूज्य देवी-देवतास्वामी अवधेशानन्द गिरि
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’देवता’ का अर्थ दिव्य गुणों से संपन्न महान व्यक्तित्वों से है। जो सदा, बिना किसी अपेक्षा के सभी को देता है, उसे भी ’देवता’ कहा जाता है...
वराह
श्री विष्णु का वराह अवतार पाताल से पृथ्वी को लाने के लिए हुआ था। जय और विजय भगवान विष्णु के पार्षद थे। सनकादि ब्रह्मर्षि भगवान विष्णु के दर्शन करने के लिए वैकुंठ में गए, किंतु उन्हें पहरे पर तैनात जय-विजय ने बेंत लगाकर अंदर जाने से रोक दिया। सनकादि ने क्रोधित होकर जय-विजय को दैत्य होने का शाप दे दिया। शापवश जय-विजय हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु के रूप में अगले जन्म में उत्पन्न हुए। हिरण्याक्ष दैत्य पृथ्वी को उठाकर पाताल लोक को ले गया। भगवान विष्णु वराह रूप धारण करके हिरण्याक्ष को मारकर पृथ्वी को ले आए। भगवान के वराह अवतार का यही प्रयोजन था। वराह अवतार की कथा इस प्रकार है-
सृष्टि के आरंभ में सृष्टिकर्ता ब्रह्मा अकेले ही मन से सृष्टि कर रहे थे। निरंतर प्रयत्न करने पर भी प्रजा की वृद्धि नहीं हो रही थी, इसलिए उन्होंने शरीर के दो भाग कर लिए। वे दोनों भाग स्त्री-पुरुष के रूप में बदल गए। दायां भाग 'मनु' और बायां भाग 'शतरूपा' कहलाया। ब्रह्मा ने मनु-शतरूपा को मैथुनीसृष्टि करने का आदेश दिया, किंतु उस समय पृथ्वी जल में डूबी हुई थी। मनु बोले, “देव! प्रजा को रहने के लिए जगह चाहिए।"
पृथ्वी को अथाह जल में डूबी देखकर ब्रह्मा जी उसे निकालने का विचार करने लगे। तभी अचानक उनकी नाक से अंगूठे के बराबर वराह (सूअर) का एक शिशु निकलकर आकाश में खड़ा हो गया। ब्रह्मा जी चकित होकर उसे देख ही रहे थे कि कुछ क्षणों में वह हाथी के बराबर हो गया और फिर पर्वताकार होकर गर्जना करने लगा। गर्जना से दशों दिशाएं गूंज उठीं। उन वराह भगवान का शरीर विशाल और बड़ा कठोर था। शरीर पर कड़े बाल थे। दाढ़े सफेद और कठोर थीं। उनकी आंखों से तेज निकल रहा था।
मुनियों की स्तुति से प्रसन्न होकर वे देवताओं का हित करने के लिए बड़े वेग से आकाश में उछले और जल में कूद पड़े। वेग से जल में कूदने के कारण ऐसा लगा मानो समुद्र का पेट फट गया हो। बाण के समान पैने खुरों से जल को चीरते हुए वे अथाह जल के अंदर चले जा रहे थे। रसातल में पहुंचकर उन्होंने प्राणियों के आधार पृथ्वी को देखा। फिर क्या था, उन्होंने उसे उठाकर अपनी दाढों पर रख लिया और रसातल के ऊपर आने लगे।
इधर बल से गर्वोन्मत्त हिरण्याक्ष की भुजाएं युद्ध के लिए फड़क रही थीं। दो-दो हाथ करने के लिए वह विष्णु को खोज रहा था कि जल के देवता वरुण ने बताया, "वे तो अभी-अभी वराह रूप धरकर समुद्र में गए हैं।"
फिर क्या था, हिरण्याक्ष भी उधर ही चल पड़ा, जिधर से भगवान वराह पृथ्वी को लिए आ रहे थे। उन्हें देखते ही हिरण्याक्ष आग-बबूला हो गया। वह बोला, "अरे! इसे कहां ले जाता है?"
भगवान वराह उसकी बात अनसुनी कर ऊपर आते ही गए। दैत्य उनके पीछे दौड़ता हुआ बोला, "अरे, तू इसे छोड़ दे, नहीं तो मारा जाएगा।"
भगवान वराह बोले, “तुझे जो करना है, वह कर ले। मैं तो पृथ्वी को लेकर ही जाऊंगा।"
दैत्य ने उनका पीछा नहीं छोड़ा। वराह भगवान ने पृथ्वी को जल के ऊपर रखकर दैत्य को ललकारा। हिरण्याक्ष ने तुरंत उन पर गदा से प्रहार कर दिया। इससे वराह भगवान की क्रोधाग्नि भड़क उठी। दोनों में घमासान युद्ध हुआ। भगवान ने हिरण्याक्ष को मार डाला। फिर उन्होंने अपने खुरों से जल को स्थिर कर पृथ्वी को स्थापित कर दिया और अंतर्धान हो गए।
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