धर्म एवं दर्शन >> हमारे पूज्य देवी-देवता हमारे पूज्य देवी-देवतास्वामी अवधेशानन्द गिरि
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’देवता’ का अर्थ दिव्य गुणों से संपन्न महान व्यक्तित्वों से है। जो सदा, बिना किसी अपेक्षा के सभी को देता है, उसे भी ’देवता’ कहा जाता है...
कच्छप
एक बार भगवान शंकर के अंशावतार महर्षि दुर्वासा ने सानंद पृथ्वी तल पर विचरण करते हुए एक विद्याधरी के हाथ में अत्यंत सुवासित माला देखकर उससे कहा, "हे सुंदरी! अपने हाथ की सुशोभित संतानक-पुष्पों की सुगंधित दिव्य माला मुझे दे दो।"
विद्याधरी ने महर्षि के चरणों में श्रद्धापूर्वक प्रणाम कर उनके कर-कमलों में माला देते हुए अत्यंत मधुर वाणी में कहा, "यह तो मेरा परम सौभाग्य है। मैं तो कृतार्थ हो गई।"
महर्षि ने माला लेकर अपने गले में डाल ली और आगे बढ़ गए। उधर से त्रैलोक्याधिपति देवराज इंद्र ऐरावत पर चढ़कर देवताओं के साथ आ रहे थे। महर्षि दुर्वासा ने प्रसन्न होकर अपने गले की भ्रमरों से गुंजायमान अत्यंत सुंदर और सुगंधित माला निकालकर शचीपति इंद्र के ऊपर फेंक दी। सुरेश्वर ने वह माला अपने ऐरावत के ऊपर डाल दी। ऐरावत ने भ्रमरों की गुंजार से युक्त उस सुवासित माला को सूंड़ से सुंघा और फिर उसे पृथ्वी पर फेंक दिया। यह दृश्य देखकर महर्षि दुर्वासा के नेत्र लाल हो गए। उन्होंने कुपित होकर सहस्राक्ष को शाप दे दिया, "अरे मूढ़ ! तूने मेरी दी हुई माला का कुछ भी आदर नहीं किया, इसलिए तेरे त्रिलोक का वैभव नष्ट हो जाएगा। तूने मेरी दी हुई माला को पृथ्वी पर फेंका है, इसलिए तेरा यह त्रिभुवन भी शीघ्र ही श्रीहीन हो जाएगा।"
यह शाप देकर महर्षि दुर्वासा वहां से चले गए। इंद्रदेव भी उदास होकर अमरावती पहुंचे। उसी क्षण से अमरेंद्र सहित त्रैलोक्य के वृक्ष तथा तृण-लतादि क्षीण होने से श्रीहत एवं विनष्ट होने लगे। त्रिलोक के श्रीहीन एवं सत्वशून्य हो जाने से प्रबल-पराक्रमी दैत्यों ने अपने तीक्ष्ण अस्त्रों से देवताओं पर आक्रमण कर दिया। देवगण पराजित होकर भागे। स्वर्ग दानवों का क्रीड़ा क्षेत्र बन गया।
असहाय, निरुपाय एवं दुर्बल देवताओं की दुर्दशा देखकर इंद्र, वरुण आदि देवता समस्त देवताओं के साथ सुमेरु के शिखर पर लोक पितामह के पास पहुंचे। संकटग्रस्त देवताओं के त्राण के लिए चतुरानन सबके साथ भगवान अजित के धाम वैकुंठ में पहुंचे। वहां कुछ भी न दिखने पर उन्होंने देववाणी द्वारा श्री भगवान की स्तुति करते हुए प्रार्थना की, “प्रभो! हम आपके शरणागत हैं और चाहते हैं कि मंद-मंद मुस्कान से युक्त आपका मुखकमल अपने इन्हीं नेत्रों से देखें। आप कृपा करके हमें उनका दर्शन कराइए।"
देवताओं के स्तवन से संतुष्ट होकर अमित तेजस्वी, मंगलधाम एवं नयनानंद दाता श्रीविष्णु मंद-मंद मुस्कराते हुए उन्हीं के बीच प्रकट हुए। देवताओं ने पुनः दयामय और सर्वसमर्थ प्रभु की स्तुति करते हुए अपना अभीष्ट निवेदन किया, “विष्णो! दैत्यों द्वारा परास्त हुए हम लोग आतुर होकर आपकी शरण में आए हैं। आप हम पर प्रसन्न होइए और अपने तेज से हमें सशक्त कीजिए।"
“पुनः सशक्त होने के लिए तुम्हें जरा-मृत्यु निवारिणी सुधा अपेक्षित है।" भगवान विष्णु ने गंभीर स्वर में देवताओं से कहा, "अमृत समुद्र-मंथन से प्राप्त होगा। यह काम अकेले तुम देवताओं से नहीं हो सकता। इसके लिए तुम लोग सामनीति का अवलंबन लेकर असुरों से संधि कर लो। अमृतपान के प्रश्न पर वे भी सहमत हो जाएंगे। फिर समुद्र में सारी औषधियां लाकर डाल दो। इसके उपरांत मंदरगिरि को मथानी एवं नागराज वासुकि की नेती बनाकर मेरी सहायता से समुद्र-मंथन करो। तुम्हें निश्चय ही सुफल प्राप्त होगा। तुम आलस्य और प्रमाद त्यागकर शीघ्र ही अमृत प्राप्ति के लिए प्रयत्न करो।"
यह कहकर लीलाधारी प्रभु अंतर्धान हो गए। इंद्रादि देवता दैत्यराज बलि के समीप पहुंचे। बुद्धिमान इंद्र ने उन्हें अपने बंधुत्व का स्मरण कराया और भगवान के आदेशानुसार बलि से अमृत प्राप्ति के लिए समुद्र-मंथन की बात 'अमत में देवताओं और दैत्यों का समान भाग होगा'-इस लाभ की दृष्टि से दैत्येश्वर बलि ने सुरेंद्र का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। वहां उपस्थित अन्य दानवपति शंबर, अरिष्टनेमि और त्रिपुरनिवासी दैत्यों ने भी इसका समर्थन किया।
फिर तो धराधाम की सारी औषधियां, तृण और लताएं क्षीरसागर में डाल दी गईं। देवताओं और दैत्यों ने अपना मतभेद त्यागकर मंदरगिरि को उखाडा और उसे क्षीर-सागर तट की ओर ले चले किंतु महान मंदराचल उनसे अधिक र नहीं जा सका। विवशतः उन लोगों ने उसे बीच में ही पटक दिया। उस सोने के मंदरगिरि के गिरने से अनेक देव और दैत्य हताहत हो गए।
देवताओं और दैत्यों का उत्साह भंग होते ही भगवान गरुड़ध्वज वहां प्रकट हो गए। उनकी अमृतमयी कृपादृष्टि से मृत देवता पुनः जीवित हो गए और उनकी शक्ति भी पूर्ववत हो गई। दयाधाम-सर्वसमर्थ श्री भगवान ने एक हाथ से धीरे से मंदराचल को उठाकर गरुड़ की पीठ पर रखा और देवताओं तथा दैत्यों सहित जाकर उसे क्षीर-सागर के तट पर रख दिया। देवता और दैत्यों ने महान मंदरगिरि को समुद्र में डालकर नागराज वासुकि की नेती बनाई। सर्वप्रथम अजित भगवान नागराज वासुकि के मुख की ओर गए। उन्हें देखकर अन्य देवता भी वासुकि के मुख की ओर चले गए।
दैत्यों ने विरोध करते हुए कहा, "पूंछ सर्प का अशुभ अंग है। हम इसे नहीं पकड़ेंगे।'' यह कहकर दैत्यगण दूर खड़े हो गए। इस पर देवताओं ने कोई आपत्ति नहीं की। वे पूंछ की ओर आ गए और दैत्यगण सगर्व मुख की ओर जाकर सोत्साह समुद्र-मंथन करने लगे। किंतु मंदरगिरि के नीचे कोई आधार नहीं था, इस कारण वह नीचे समुद्र में डूबने लगा। यह देखकर अचिंत्य शक्तिसंपन्न श्री भगवान विशाल एवं विचित्र कच्छप का रूप धारण करके समुद्र में मंदरगिरि के नीचे पहुंच गए।
कच्छपावतार की एक लाख योजन विस्तृत पीठ पर मंदरगिरि ऊपर उठ गया। देवता और दैत्य समुद्र मंथन करने लगे। भगवान आदिकच्छप की सुविस्तृत पीठ पर मंदरगिरि अत्यंत तीव्रता से घूम रहा था और श्री भगवान को ऐसा प्रतीत हो रहा था, जैसे कोई उनकी पीठ खुजला रहा हो।
समुद्र-मंथन का कार्य संपन्न हो जाए, एतदर्थ श्री भगवान शक्ति-संवर्द्धन के लिए असुरों में असुर रूप से, देवताओं में देवरूप से और वासुकि नाग में निद्रारूप से प्रविष्ट हो गए। इतना ही नहीं, वे मंदरगिरि को ऊपर से दूसरे महान पर्वत की भांति अपने हाथों से दबाकर स्थिर हो गए। श्री भगवान की इस लीला को देखकर ब्रह्मा, शिव और इंद्रादि देवगण स्तुति करते हुए उनके ऊपर दिव्य पुष्पों की वृष्टि करने लगे।
इस प्रकार कच्छपावतार श्री भगवान की पीठ पर मंदराचल स्थिर हुआ और उन्हीं की शक्ति से समुद्र-मंथन हुआ।
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