धर्म एवं दर्शन >> हमारे पूज्य देवी-देवता हमारे पूज्य देवी-देवतास्वामी अवधेशानन्द गिरि
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’देवता’ का अर्थ दिव्य गुणों से संपन्न महान व्यक्तित्वों से है। जो सदा, बिना किसी अपेक्षा के सभी को देता है, उसे भी ’देवता’ कहा जाता है...
वक्रतुण्ड
वक्रतुण्डावतारश्च देहानां ब्रह्मधारकः।
मत्सरासुर हन्ता स सिंहवाहनगः स्मृतः॥
वक्रतुण्डावतार' ब्रह्म को धारण करने वाला है। उसे मत्सरासुर का संहारक तथा सिंह वाहन पर चलने वाला माना गया है। देवराज इंद्र के प्रमाद से महान असुर मत्सर का जन्म हुआ था। उसने दैत्य गुरु शुक्राचार्य से शिव पंचाक्षरी मंत्र ॐ नमः शिवाय की दीक्षा प्राप्त की थी। मत्सर ने इस मंत्र का जप करते हुए कठोर तप किया। उसके तपश्चरण से संतुष्ट होकर भगवान शंकर ने अपनी सहधर्मिणी पार्वती और गणों के साथ उसे दर्शन दिया। मुदितमन मत्सर ने शिवा और शिव की प्रेमपूर्ण स्तुति की। भगवान शंकर ने प्रसन्न होकर उसे वर प्रदान किया, “तुम्हें किसी से भी भय नहीं रहेगा।"
जब मत्सर प्रसन्नचित्त होकर घर लौटा तो शुक्राचार्य ने उसे दैत्यराज के पद पर अभिषिक्त किया। दैत्यों ने सामर्थ्यशाली मत्सर को विश्व विजय का परामर्श दिया। फिर क्या था, वर प्राप्त मत्सरासुर ने अपनी विशाल वाहिनी के साथ पृथ्वी नरेशों पर आक्रमण कर दिया। पृथ्वी के नरपति युद्ध भूमि में उस महान असुर के सम्मुख नहीं टिक सके। कुछ पराजित हो गए और कुछ प्राण लेकर भागे। संपूर्ण पृथ्वी मत्सरासुर के अधीन हो गई।
तदनंतर गर्वोन्मत्त मत्सरासुर ने पाताल लोक पर आक्रमण किया। अमित शक्ति संपन्न असुर द्वारा सर्वनाश होते देख शेष ने विनयपूर्वक उसके शासन में रहकर नियमित रूप से 'कर' देना स्वीकार कर लिया। पृथ्वी और पाताल को अपने अधिकार में लेने के अनंतर महासुर ने देवलोक पर चढ़ाई कर दी। वरुण, कुबेर और यम आदि देवता पराजित हो गए। फिर उसने अमरावती को घेर लिया। सुरेंद्र भी पराक्रमी असुर के सम्मुख नहीं टिक सके। मत्सरासुर स्वर्ग का अधिपति हुआ। असुरों से त्रस्त ब्रह्मा और विष्णु आदि देवता कैलास पहुंचे। उन्होंने भगवान शंकर से दैत्यों के उपद्रव का वृत्तांत कह सुनाया।
भगवान शंकर ने असुर की निंदा की। यह समाचार जब मत्सर को प्राप्त हुआ तो वह अत्यंत कुपित होकर कैलास पर जा चढ़ा। त्रिपुरारि ने मत्सरासुर से युद्ध किया, किंतु उस त्रैलोक्य विजयी दैत्य ने भवानीपति को भी पाश में बांध लिया। वह कैलास का स्वामी बनकर वहीं रहने लगा। मत्सरासुर कैलास और वैकुंठ के शासन का भार अपने पुत्रों को देकर स्वयं वैभव संपन्न मत्सरावास में रहने लगा। उस निष्ठुर असुर का शासन अत्यंत क्रूर था। अनीति और अत्याचार का तांडव होने लगा। दुखी देवता मत्सरासुर के विनाश का उपाय सोचने के लिए एकत्र हुए। कोई मार्ग न देखकर वे अत्यंत चिंतित हो रहे थे।
उसी समय वहां भगवान दत्तात्रेय आ पहुंचे। उन्होंने देवताओं को वक्रतुण्ड के एकाक्षरी मंत्र गं का उपदेश देकर उन्हें अनुष्ठान हेतु प्रेरित किया। समस्त देवता और भगवान पशुपति वक्रतुण्ड के ध्यान के साथ एकाक्षरी मंत्र का जप करने लगे। उनकी आराधना से संतुष्ट होकर वक्रतुण्ड प्रकट हुए। उन्होंने कहा, "आप लोग निश्चित हो जाएं। मैं मत्सरासुर का गर्व खर्व कर दूंगा।"
वक्रतुण्ड के स्मरणमात्र से गणों की असंख्य सशस्त्र सेना एकत्र हो गई। वे मत्सरासुर की राजधानी पहुंचे। शत्रु द्वार पर आ गए—यह समाचार पाकर असुर युद्ध के लिए निकल पड़े। किंतु जब उन्होंने गणों की विशाल सेना के साथ महाकाय वक्रतुण्ड को देखा तो वे भयभीत होकर कांपने लगे। असुरों ने लौटकर मत्सरासुर से कहा, “पराक्रमी शत्रु से युद्ध उचित नहीं है।"
इस पर त्रैलोक्य विजयी मत्सर बहुत कुपित हुआ। वह स्वयं आक्रमणकारी शत्रु को मिटाने के लिए समर भूमि में उपस्थित हुआ। उसके आते ही भयंकर युद्ध छिड़ गया। पांच दिनों तक वह युद्ध चलता रहा, किंतु किसी भी पक्ष की विजय न हो सकी। मत्सरासुर के दो पुत्र थे-सुंदरप्रिय और विषयप्रिय। उन दोनों ने समर भूमि में पार्वती वल्लभ को मूर्छित किया ही था कि वक्रतुण्ड के दो गणों ने उन्हें मार डाला।
मत्सर छटपटा उठा। पुत्र वध से व्याकुल मत्सरासुर को असुरों ने समझाया और उससे शत्रु का संहार कर प्रतिशोध लेने के लिए कहा। तब वह रणभूमि में उपस्थित हुआ। वहां उसने वक्रतुण्ड का अत्यंत तिरस्कार किया। इस पर वक्रतुण्ड ने कहा, ''हे दुष्ट असुर ! यदि तुझे अपना प्राण प्रिय है तो मेरी शरण में आ जा, अन्यथा निश्चय ही मारा जाएगा।''
तब पुत्रों के वध से आहत-भयाक्रांत मत्सरासुर भयानकतम वक्रतुण्ड को देखकर विनयपूर्वक उनकी स्तुति करने लगा। उसकी प्रार्थना से संतुष्ट होकर दयामय वक्रतुण्ड ने उसे अपनी भक्ति प्रदान कर दी।
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