धर्म एवं दर्शन >> हमारे पूज्य देवी-देवता हमारे पूज्य देवी-देवतास्वामी अवधेशानन्द गिरि
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’देवता’ का अर्थ दिव्य गुणों से संपन्न महान व्यक्तित्वों से है। जो सदा, बिना किसी अपेक्षा के सभी को देता है, उसे भी ’देवता’ कहा जाता है...
एकदंत
एकदन्तावतारौ वै देहिनां ब्रह्मधारकः।
पदासुरस्य हन्ता स आखुवाहनगः स्मृतः॥
भगवान गणेश का 'एकदंतावतार' देहि-ब्रह्म का धारक है। वह मदासुर का वध करने वाला है और उसका वाहन मूषक है। उस समय मदासुर नामक एक बलवान पराक्रमी दैत्य था। वह महर्षि च्यवन का पुत्र था। एक बार वह अपने पिता से आज्ञा लेकर दैत्यगुरु शुक्राचार्य के पास गया। उसने शुक्राचार्य से कहा, "आप मुझे कृपापूर्वक अपना शिष्य बना लें। मैं संपूर्ण ब्रह्मांड का स्वामी बनना चाहता हूं। आप मेरी इच्छा पूरी करने के लिए मेरा उचित मार्ग दर्शन करें।'' तब शुक्राचार्य ने संतुष्ट होकर मदासुर को अपना शिष्य बना लिया और उसे विधि सहित एकाक्षरी शक्ति मंत्र ह्वीं दिया।
मदासुर अपने गुरु शुक्राचार्य के चरणों में प्रणाम कर जंगल में तप करने के लिए चला गया। उसने भगवती का ध्यान करते हुए हजारों वर्षों तक कठोर तप किया। यहां तक कि उसका शरीर दीमकों की बांबी बन गया। उसके चारों तरफ वृक्ष उग गए और लताएं फैल गईं। उसके कठोर तप से प्रसन्न होकर भगवती प्रकट हुईं। माता भगवती ने उसे नीरोग रहने तथा निष्कंटक संपूर्ण ब्रह्मांड का राज्य प्राप्त होने का वरदान दिया।
मदासुर ने पहले संपूर्ण धरती पर अपना साम्राज्य स्थापित किया। फिर स्वर्ग पर चढ़ाई की। इंद्रादि देवताओं को जीतकर वह स्वर्ग का भी शासक बन बैठा। उसने प्रमदासुर की कन्या सालसा से विवाह किया। उससे उसे तीन पुत्र हुए। उसने शूलपाणि भगवान शिव को भी पराजित कर दिया। सर्वत्र असुरों का क्रूरतम शासन चलने लगा। पृथ्वी पर समस्त धर्म-कर्म लुप्त हो गए। देवताओं एवं मुनियों के दुख की सीमा न रही। सर्वत्र हाहाकार मच गया।
चिंतित देवता महर्षि सनत्कुमार के पास गए तथा उनसे उस असुर के विनाश एवं धर्म-स्थापना का उपाय पूछा। सनत्कुमार ने कहा, “देवगण! आप लोग श्रद्धा-भक्तिपूर्वक भगवान एकदंत की उपासना करें। वे संतुष्ट होकर अवश्य ही आप लोगों का मनोरथ पूर्ण करेंगे।"
महर्षि सनत्कुमार के उपदेशानुसार देवगण भगवान एकदंत की उपासना करने लगे। तपस्या के सौ वर्ष पूरे होने पर मूषक वाहन वाले भगवान एकदंत प्रकट हुए तथा वर मांगने के लिए कहा। देवताओं ने निवेदन किया, ‘‘हे प्रभो! मदासुर के शासन में देवगण स्थानभ्रष्ट और मुनिगण कर्मभ्रष्ट हो गए हैं। आप हमें इस कष्ट से मुक्ति दिलाकर अपनी भक्ति प्रदान करें।"
उधर देवर्षि ने मदासुर को सूचना दी कि भगवान एकदंत ने देवताओं को वरदान दिया है। अब वे तुम्हारा प्राण-हरण करने के लिए तुमसे युद्ध करना चाहते हैं। मदासुर अत्यंत कुपित होकर अपनी विशाल सेना के साथ एकदंत से युद्ध करने चल पड़ा। भगवान एकदंत रास्ते में ही प्रकट हो गए। राक्षसों ने देखा कि भगवान एकदंत सामने से चले आ रहे हैं। वह मूषक पर सवार हैं। उनकी आकृति अत्यंत भयानक है। उनके हाथ में परशु, पाश आदि आयुध हैं।
भगवान एकदंत ने असुरों से कहा, "तुम अपने स्वामी से कह दो कि यदि वह जीवित रहना चाहता है तो देवताओं से द्वेष छोड़ दे और उनका राज्य उन्हें वापस कर दे। अगर वह ऐसा नहीं करता तो मैं उसका वध कर दूंगा।"
महाक्रूर मदासुर युद्ध के लिए तैयार हो गया। जब वह अपने धनुष पर बाण चढ़ा रहा था, तभी भगवान एकदंत का तीव्र परशु उसे आकर लगा और वह बेहोश होकर गिर गया।
बेहोशी टूटने पर मदासुर समझ गया कि यह सर्वसमर्थ परमात्मा ही हैं। उसने हाथ जोड़कर स्तुति करते हुए कहा, “हे प्रभो! आप मुझे क्षमा करके अपनी दृढ़ भक्ति प्रदान करें।"
भगवान एकदंत ने प्रसन्न होकर कहा, "जहां मेरी पूजा-आराधना हो, वहां तुम कदापि मत जाना। आज से तुम पाताल में रहोगे।' तब सभी देवता प्रसन्न होकर भगवान एकदंत की स्तुति करके अपने लोक चले गए।
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