लोगों की राय

धर्म एवं दर्शन >> हमारे पूज्य देवी-देवता

हमारे पूज्य देवी-देवता

स्वामी अवधेशानन्द गिरि

प्रकाशक : मनोज पब्लिकेशन प्रकाशित वर्ष : 2015
पृष्ठ :208
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 8953
आईएसबीएन :9788131010860

Like this Hindi book 9 पाठकों को प्रिय

243 पाठक हैं

’देवता’ का अर्थ दिव्य गुणों से संपन्न महान व्यक्तित्वों से है। जो सदा, बिना किसी अपेक्षा के सभी को देता है, उसे भी ’देवता’ कहा जाता है...

देवर्षि नारद


देवर्षि नारद पहले गंधर्व थे। एक बार ब्रह्मा जी की सभा में सभी देवता और गंधर्व भगवन्नाम का संकीर्तन करने के लिए आए। नारद जी अपनी पत्नियों के साथ उस सभा में गए। भगवान के संकीर्तन में विनोद करते हुए देखकर ब्रह्मा जी ने उन्हें दरिद्र होने का शाप दे दिया। उस शाप के प्रभाव से नारद जी का जन्म एक दरिद्र परिवार में हुआ। जन्म लेने के बाद ही इनके पिता की मृत्यु हो गई।

देवर्षि नारद की माता दासी का कार्य करके इनका भरण-पोषण करने लगीं। एक दिन नारद जी के गांव में कुछ महात्मा आए और चातुर्मास्य बिताने के लिए वहां ठहर गए। नारद जी बचपन से ही अत्यंत सुशील और परम भक्त थे। वे खेलकूद छोड़कर उन साधुओं के पास ही बैठे रहते थे और उनकी छोटी से छोटी सेवा भी बड़े मन से करते थे।

संत-सभा में जब भगवत्कथा होती थी तो नारद जी तन्मय होकर सुना करते थे। संत लोग इन्हें बचा हुआ भोजन दे देते थे। साधु-सेवा और सत्संग से अमोघ फल प्राप्त होता है। उसके प्रभाव से नारद जी का हृदय पवित्र हो गया और उनके समस्त पाप धुल गए। जाते समय महात्माओं ने प्रसन्न होकर उन्हें भगवन्नाम का जप एवं भगवान के स्वरूप के ध्यान का उपदेश दिया।

एक दिन सांप के काटने से नारद जी की माता भी इस संसार से चल बसीं। अब वे इस संसार में अकेले रह गए। उस समय इनकी अवस्था मात्र पांच वर्ष की थी। माता के वियोग को भगवान का परम अनुग्रह मानकर वे अनाथों के नाथ दीनानाथ का भजन करने के लिए निकल पड़े।

एक दिन जब नारद जी वन में बैठकर भगवान के स्वरूप का ध्यान कर रहे थे, तभी अचानक उनके हृदय में भगवान प्रकट हो गए और थोड़ी देर अपने दिव्य स्वरूप की झलक दिखाकर अंतर्धान हो गए। भगवान का पुनः दर्शन करने के लिए नारद जी के मन में परम व्याकुलता पैदा हो गई। वे बार-बार अपने मन को समेटकर भगवान के ध्यान का प्रयास करने लगे किंतु सफल नहीं हुए। उसी समय आकाशवाणी हुई, “हे पुत्र! अब इस जन्म में तुम्हें पुनः हमारे दर्शन नहीं होंगे। अगले जन्म में तुम मेरे पार्षद के रूप में दर्शन प्राप्त करोगे।" समय आने पर नारद जी का पंचभौतिक शरीर छूट गया और कल्प के अंत में वे ब्रह्मा जी के मानस पुत्र के रूप में अवतीर्ण हुए।

देवर्षि नारद भगवान के भक्तों में सर्वश्रेष्ठ हैं। वे भगवान की भक्ति और माहात्म्य के विस्तार के लिए अपनी वीणा की मधुर तान पर भगवद् गुणों का गान करते हुए निरंतर विचरण किया करते हैं। इन्हें भगवान का मन' कहा गया है। इनके द्वारा प्रणीत 'भक्ति सूत्र' में भक्ति की बड़ी सुंदर व्याख्या है।

महर्षि नारद अब भी अप्रत्यक्ष रूप से भक्तों की सहायता करते रहते हैं। प्रह्लाद, अंबरीष एवं ध्रुव आदि भक्तों को उपदेश देकर इन्होंने ही भक्ति मार्ग में प्रवृत्त किया था। इनकी समस्त लोकों में निर्बाध गति है। इनका जीवन संसार में मंगल के लिए ही है। ये ज्ञान के स्वरूप, विद्या के भंडार, आनंद के सागर तथा सबके सहज प्रेमी और विश्व के हितकारी हैं।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book

A PHP Error was encountered

Severity: Notice

Message: Undefined index: mxx

Filename: partials/footer.php

Line Number: 7

hellothai