अतिरिक्त >> देवांगना देवांगनाआचार्य चतुरसेन
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आस्था और प्रेम का धार्मिक कट्टरता और घृणा पर विजय का एक रोचक उपन्यास...
"वे सदा सबकी कल्याण-कामना में लगे रहते हैं, वे सर्वत्यागी सिद्ध महापुरुष हैं, उन्हें सुख-दुख नहीं व्यापता।" फिर उन्होंने आगे बढ़कर कुमार के मस्तक पर हाथ धर कहा-"धन्य कुमार! तुमने वही किया जो तथागत ने किया था, तुम्हारा जीवन धन्य हुआ।"
दिवोदास ने मौनभाव से आचार्य के चरणों में मस्तक नवा दिया।
सेठ ने कहा-"आचार्य मैंने अपना कुल-दीपक धर्म के लिए दिया।"
इस समय महाराज ने आगे बढ़कर सेठ के कन्धे पर हाथ धरके कहा-"क्या तुम बहुत दुखी हो श्रेष्ठि।"
"नहीं देव, किंतु अब यही इच्छा है कि ये महल-अटारी, धन-स्वर्ण सभी संघ की शरण हो जाय, और वह अधम भी संघ के एक कोने में स्थान प्राप्त करे।"
आचार्य ने प्रसन्न मुद्रा में कहा-"यह बहुत अच्छा विचार है। श्रेष्ठिराज, धर्म में आपकी मति बनी रहे। अच्छा, अब देर क्यों? अनुष्ठान का मुहूर्त तो
सन्निकट है।"
"सब कुछ तैयार है आचार्य।"
"तो चलिए।"
सब लोग चले। आगे-आगे सुखदास मार्ग बताता हुआ। पीछे राजा, आचार्य और धनंजय श्रेष्ठि, उनके पीछे कुमार, कुमार के पीछे स्त्रियाँ मंगल गान करती हुई और उनके पीछे मेहमान।
बाहर आने पर कुमार को सुखपाल पर सवार कराया गया। 16 दण्डधर सुखदास की अध्यक्षता में आगे-आगे चले। उनके पीछे स्त्रियाँ मंगल गान करती हुई चलीं। उनके पीछे 100 दासियाँ हाथ में पूजन सामग्री लेकर चलीं। उनके पीछे 100 भिक्षु नमोबुद्धाय", 'नमो अरिहन्ताय' का उच्चारण करते चले। पीछे हाथियों, घोड़ों, पालकियों पर समागत भद्रजन और पैदल।
राह में पुर-स्त्रियों ने अपने सिर के केशों से मार्ग की धूल साफ की, नागरिकों ने पथ पर बहुमूल्य दुशाले बिछाये। कुलवधुओं ने झरोखों से खिले फूल बखेरे।
विविध वाद्य बज रहे थे, भिक्षु मंत्रपाठ करते चल रहे थे।
समारोह संघाराम के विशाल द्वार के सम्मुख आ विस्तृत मैदान में रुक गया। सब कोई पंक्तिबद्ध हो, स्तब्ध भाव से खड़े हो गये। सबकी दृष्टि संघाराम के विशाल सिंहद्वार पर थी, जिसके पट बन्द थे। उन्हीं की खोलकर महासंघस्थविर आने वाले थे।
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