अतिरिक्त >> देवांगना देवांगनाआचार्य चतुरसेन
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आस्था और प्रेम का धार्मिक कट्टरता और घृणा पर विजय का एक रोचक उपन्यास...
सुखदास ने गृहिणी का यह विषादपूर्ण वाक्य सुन लिया। उसने ठण्डी साँस लेकर कहा-"हाय, आज का यह दिन देखने ही को मैं जीवित रहा!" परन्तु शीघ्र ही उसने अपने को सम्हाला। आँख की कोर में आए आँसू पोंछ डाले और आगे बढ़कर कहा-"कुमार, मालिक की आज्ञा है कि महाराजाधिराज और आचार्य के पधारने में अब देर नहीं है, तनिक जल्दी करो।"
कुमार ने स्थिर स्वर में कहा-"पितृव्य, पितृचरणों में निवेदन कर दो कि यह दास तैयार है।"
सुखदास ने क्षण-भर ओस से भीगे हुए शतदल कमल की भाँति सुषमा सम्पन्न कुमार के मुख की ओर देखा-और 'अच्छा' कहकर वहाँ से चला गया।
इसी समय श्रेष्ठि ने आकर दोनों हाथ फैलाकर कहा-"पुत्र, प्यारे पुत्र!"
दिवोदास ने सम्मुख खड़े होकर कहा-"पितृचरणों में अभिवादन करता हूँ।"
“आयुष्मान् हो, यशस्वी हो, पुत्र।"
"अनुगृहीत हुआ।"
"तो पुत्र, तुम तैयार हो?" श्रेष्ठि ने कम्पित कण्ठ से कहा।
"हाँ पिता।"
"पुत्र, मेरा हृदय बैठा जा रहा है।"
"पिताजी, यह तो आनन्द का अवसर है।"
"अरे पुत्र, तेरे बिना मैं रहूँगा कैसे? यह सारी पृथ्वी तप्त तवे की भाँति अभी से जलती दीख रही है। अब यह सुख-वैभव, धनराशि...हाय, मैंने सोचा था...
सुखदास ने व्यस्त भाव से आकर कहा-“स्वामिन्, महाराजाधिराज श्री गोविन्दपाल देव तथा भिक्षुश्रेष्ठ आचार्य बन्धुगुप्त पधार रहे हैं।"
धनंजय सेठ ने आँखें पोछीं और उनकी अभ्यर्थना को दौड़ चले। उन्होंने महाराज और भिक्षुश्रेष्ठ की अभ्यर्थना की और कक्ष में ले आए।
दिवोदास ने भूपात करके साष्टांग प्रणाम किया।
बन्धुगुप्त ने दोनों हाथ ऊँचे कर कहा-"कल्याण, कल्याण!" फिर आगे बढ़कर सेठ से कहा-"श्रेष्ठिराज, महासंघस्थविर वज़सिद्धि ने आपका मंगल पूछा है, तथा मंजुश्री वज़तारा देवी का यह गन्धमाल्य दिया है।"
धनंजय सेठ ने गन्धमाल्य लेकर मस्तक पर रक्खा। और कहा-"भला महासंघस्थविर प्रसन्न तो हैं?"
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