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देवांगना

आचार्य चतुरसेन

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :128
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 9009
आईएसबीएन :9789350642702

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आस्था और प्रेम का धार्मिक कट्टरता और घृणा पर विजय का एक रोचक उपन्यास...

सुखदास सेठ का पुराना नौकर था। उसका इस महाजन के घर में परिवार के पुरुष की भाँति आदर-मान था। वह अधेड़ आयु का एक ठिगना, मोटा और गौरवर्ण का पुरुष था। चाँद उसकी गंजी थी, चेहरा सदा हास्य से भरा रहता था पर इस समारोह में उसका मुँह भी भरे हुए बादलों के समान हो रहा था। वह सेठ के दु:ख और विवशता की जानता था। उसके पुत्र की मनोदशा भी समझता था। जी कार्य हो रहा था वह उसका कट्टर विरोधी था। परन्तु वह विवश था।

बौद्धों के पाखण्ड, दुराचार और दुष्ट वृत्ति को वह जानता था। इन ढोंगी भिक्षुओं की धर्षणा करने का वह कोई अवसर चूकता नहीं था।

महाश्रेष्ठ के पुत्र का नाम दिवोदास था। वह बाईस वर्ष का दर्शनीय युवक था। रंग उसका मोती के समान था। उज्ज्वल हीरक पंक्ति-सी उसकी धवल दन्तावलि थी। उत्फुल्ल कमलदल-से उसके नेत्र थे और सघन घन गर्जन-सा उसका कण्ठस्वर था। वह नवीन वृषभ की भाँति चलता था। उसका हास्य जैसे फूल बिखेरता था।

सुखदास ने सेट्ठि पुत्र को गोद खिलाया था। उसकी अपनी कोई सन्तान न थी। इस निरीह दम्पति ने सेट्ठि पुत्र में ही अपना वात्सल्य समर्पित किया था। बालक दिवोदास सेवक सुखदास के घरें जाकर उसकी गोद में बैठकर उसके हाथ से उसके घर का रूखा-सूखा भोजन करता और उसी की गोद में सुखदास की कहानियाँ सुनते-सुनते सो जाता था। श्रेष्ठि और उनकी गृहिणी को इसमें आपत्ति न थी। पुत्र के प्रति सुखदास के प्रेम से वे परिचित थे। इसमें उन्हें सुखोपलब्धि होती थी।

इसी प्रकार दिवोदास युवा हो गया। युवा होने पर भी सुखदास के प्रति उसकी आसक्ति गई नहीं। वह उसे पितृव्य कहकर पुकारता था। सुखदास दिवोदास के विवाह की कितनी ही रंगीन कल्पनाएँ करता। पति-पत्नी झूठमूठ को ही दिवोदास के विवाह की किसी काल्पनिक बात को लेकर लड़ पड़ते, और जब पडते थे।

आज इन सब सुखद भावनाओं पर जैसे तुषारपात हो गया। सुखदास की मर्मकथा को कौन जान सकता था! वह अपने हाहाकार करते हुए हृदय की पीड़ा को छिपाकर अन्त:पुर की ओर चला गया।

अन्त:पुर में परिचारिकाएँ दिवोदास को मन्त्रपूत जल से स्नान करा रही थीं। पाँच भिक्षु मन्त्र पाठ कर रहे थे। दिवोदास गम्भीर थे।

उनके स्वर्णगात पर केसर का उबटन किया गया था। सुगन्ध से कक्ष भर रहा था। चेरी और सुहागिनें मंगल गीत गा रही थीं। परिचारिकाओं ने स्नान के बाद दिवोदास को बहुमूल्य वस्त्र और आभूषण पहनाए। यह देख गृहपत्नी ने आँख में आँसू भरकर कहा-"पुत्र का यह कुछ ही क्षणों का श्रृंगार है, फिर तो पीत चीवर और भिक्षापात्र!" उसकी आँखों से झर-झर अश्रुधार बह चली।

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