अतिरिक्त >> देवांगना देवांगनाआचार्य चतुरसेन
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आस्था और प्रेम का धार्मिक कट्टरता और घृणा पर विजय का एक रोचक उपन्यास...
समारोह
आजकल जहाँ भागलपुर नगर बसा है, वहाँ ईसा की बारहवीं शताब्दी में विक्रमशिला नाम का समृद्ध नगर था। नगर के साथ ही वहाँ विश्वविश्रुत बौद्ध विद्यापीठ था। विक्रमशिला के नगरसेठ धनंजय का हिमधौत धवल महालय आज विविध रंग की पताकाओं, बन्दनवारों और मांगलिक चिहों से सजाया जा रहा था। सिंहद्वार का तोरण फूलों से बनाया गया था। बड़े-बड़े हाथियों-घोड़ों-रथों-पालकियों पर और दूसरे वाहनों पर नगर के धनी-मानी नर-नारी, सेठ-साहूकार और राजवर्गीय पुरुष आज धनंजय सेट्ठि के महालय में आ रहे थे। रंगीन कुत्तक और जड़ाऊ समागत अतिथियों की अभ्यर्थना कर रहते थे। दास-दासी, द्वारपाल सब अपनी-अपनी व्यवस्था में व्यस्त रहे थे। महालय का वातावरण अतिथियों और उनके वाहनों की धूमधाम और कोलाहल से मुखरित हो रहा था।
नगर सेट्ठि धनंजय की आयु साठ को पार कर गई थी। उनका शरीर स्थूल और रंग मोती के समान उज्ज्वल था। उनके स्निग्ध मुखमण्डल पर सफेद मूंछों का गलमुच्छा उनकी गम्भीरता का प्रदर्शन कर रहा था। वह शुभ्र परिधान पहिने, कण्ठ में रत्नहार धारण किए, मस्तक पर बहुमूल्य उष्णीष पहिने समागत अतिथियों का स्वागत कर रहे थे। उनके होंठ अवश्य मुस्करा रहे थे, पर उनका हृदय रो रहा था। उनका मुख भरे हुए बादलों के समान गम्भीर और नेत्र आद्र थे। आज उनका इकलौता पुत्र प्रव्रज्या लेकर भिक्षुवृत्ति ग्रहण कर रहा था। यह असाधारण समारोह इसी के उपलक्ष्य में था।
एक हजार भिक्षुसंघ सहित, आचार्य भदन्त वज़सिद्धि प्रांगण में पहुँच चुके थे। भिक्षुगण पीत चीवर पहिने, सिर मुंडाए, मन्द स्वर से पवित्र काव्यों का उच्चारण कर रहे थे। उनका सम्मिलित कठस्वर वातावरण में एक अद्भुत कम्पन उत्पन्न कर रहा था। महालय में जो गन्ध द्रव्य जल रहा था उसके सुवासित धूम से सुरभित वायु दूर-दूर तक फैल रही थी। विविध वाद्य बज रहे थे। सम्मानित अतिथि आपस में धीरे-धीरे भाँति-भाँति की जी बातचीत मन्द स्वर से कर रहे थे उससे सारी ही अट्टालिका मुखरित हो रही थी।
धनंजय सेट्ठि ने व्यस्त भाव से इधर-उधर देखा। सामने ही उनका अन्तेवासी विश्वस्त सेवक सुखदास उदास मुँह चुपचाप निश्चेष्ट खड़ा था। सेठ ने कहा-"भणे सुखदास, तनिक देख तो, पुत्र के तैयार होने में अब कितना विलम्ब है। भिक्षुगण तो आ ही गए हैं। अब परम भट्टारक महाराजाधिराज और आचार्य के आने में विलम्ब नहीं है।"
सुखदास ने मालिक की विषादपूर्ण दृष्टि और कम्पित स्वर को हृदयंगम किया और बिना ही उत्तर दिए स्वामी के सम्मुख मस्तक नत कर भीतर चला गया।
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