लोगों की राय

अतिरिक्त >> देवांगना

देवांगना

आचार्य चतुरसेन

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :128
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 9009
आईएसबीएन :9789350642702

Like this Hindi book 4 पाठकों को प्रिय

383 पाठक हैं

आस्था और प्रेम का धार्मिक कट्टरता और घृणा पर विजय का एक रोचक उपन्यास...

मुसलमानों को, भारत से बाहर भी मध्य एशिया में जरफशों और वक्षु की उपत्यकाओं, फगाना और वाल्हीक की भूमियों में बौद्धों का मुकाबिला करना पड़ता था। घुटे चेहरे और रंगे कपड़े वाले इन बुतपरस्त (बुद्धपूजक) भिक्षुओं से वे प्रथम ही से परिचित थे। इसी से भारत में जब उनसे मुठभेड़ हुई तो उन्होंने उन पर दया नहीं दिखाई। उन्होंने खोज-खोजकर बौद्धों के सारे छोटे-बड़े विहार नष्ट कर दिए। बौद्धों को अब खड़े होने का स्थान न रह गया। भारतीय बौद्धधर्म संघ के प्रधान शाक्य श्रीभद्र विक्रमशिला विद्यालय के ध्वस्त होने के बाद भागकर पूर्वी बंगाल के ‘जगत्तला' विहार में पहुँचे। जब वहाँ भी तुर्कों की तलवार पहुँची, तब नेपाल जाकर वे शरणापन्न हुए। पीछे वे तिब्बत चले गए। शाक्य श्रीभद्र की भाँति न जाने कितने बौद्ध सिद्ध विदेशों को भाग गए। भारत में तो रंगे कपड़े पहनना मौत का वारंट था। अब न उनके खड़े होने का भारत में स्थान था, न उनका कोई संरक्षक था और न जनता का ही उन पर विश्वास रह गया था। इसलिए वे तिब्बत, चीन, बर्मा और लंका की ओर भाग गये। उनके इस प्रकार अन्तर्धान होने पर बौद्ध गृहस्थ भी अपने धर्मकृत्य भूल गए। और इस प्रकार नालन्दा, विक्रमशिला और उदन्तपुरी के ध्वंस के कुछ ही पीढ़ी बाद, बुद्ध की जन्मभूमि भारत में बौद्ध धर्म का सर्वथा लोप हो गया।

हमारा यह उपन्यास बारहवीं शताब्दी के अन्तिम चरण की घटनाओं पर आधारित है। इस समय विक्रमशिला-उदन्तपुरी-वज़्रासन और नालन्दा विश्वविद्यालय वज्रयान और सहजयान सम्प्रदायों के केन्द्र स्थली हो रहे थे, तथा उनके प्रभाव से भारतीय हिन्दू-शैव-शाक्त भी वाममार्ग में फेंस रहे थे। इस प्रकार धर्म के नाम पर अधर्म और नीति के नाम पर अनीति का ही बोलबाला था। हम इस उपन्यास में उसी काल की पूर्वी भारतीय जीवन की कथा उपस्थित करते हैं।

- चतुरसेन

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book