अतिरिक्त >> देवांगना देवांगनाआचार्य चतुरसेन
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आस्था और प्रेम का धार्मिक कट्टरता और घृणा पर विजय का एक रोचक उपन्यास...
"नहीं प्रेमप्यारी जी, कहीं ऐसा भी हो सकता है? तुम्हें छोड़कर भला सुखदास की गत कहाँ है। पर भैया की सेवा करना भी मेरा धर्म है। लो अब मैं जाता हूँ।"
"तो फिर मुझे क्या कहते हो?"
"बस, इस झमेले से बेबाक हुआ कि मुझे नूपुर बनवाने हैं।"
"भाड़ में जाए नूपुर! मेरे लिए तुम बने रहो।"
"मैं तो पक्का बना-बनाया हूँ, चिन्ता मत करो।"
"फिर कब आओगे?"
"रोज ही आएँगे, आने में क्या है! सभी भिक्षु भिक्षा के लिए आते हैं। हम यहीं मिला करेंगे। अच्छा साध्वी, तेरा कल्याण हो, यह भिक्षु सुखानन्द चला।"
"हाय-हाय, निमोंही न बनी!"
"सब झूठमूठ का धन्धा है। प्यारी, झूठमूठ का धन्धा!"
“पर तनिक तो ठहरो !"
"अब नहीं, देखें भैया को वहाँ कैसे रक्खा गया है।"
"तो जाओ। फिर।' "जाता हूँ।" सुखदास धीरे-धीरे घर से बाहर चला गया। सुन्दरी आँखों में आँसू भरे एकटक देखती रही।
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