अतिरिक्त >> देवांगना देवांगनाआचार्य चतुरसेन
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आस्था और प्रेम का धार्मिक कट्टरता और घृणा पर विजय का एक रोचक उपन्यास...
वह बड़बड़ाती हुई बाहरी कक्ष में आई। उसका इरादा कल के युद्ध को फिर से जारी करके पति को परास्त कर डालने का था। कक्ष में देखा-वहाँ सुखदास के स्थान पर कोई भिक्षु पीत कफनी पहिने बैठा है। सुखदास की भाँति सुन्दरी भी भिक्षुओं को एक आँख नहीं देख सकती थी। उसने भिक्षु को देखते ही आग बबूला होकर कहा : "यह कौन मूड़ीकाटा बैठा है, अरे तू कौन है?"
"यह मैं हूँ प्रेमप्यारी जी, तुम्हारा दास सुखदास। पर अब तुम इसे भिक्षु सुखानन्द कहना।"
सुन्दरी का कलेजा धक से रह गया। उसने घबड़ाकर कहा : "क्या भाँग खा गए हो? मूछों का एकदम सफाया कर दिया?"
"तुम्हीं तो इन्हें कोसा करती थी? कही अब यह मुँह कैसा लगता है?"
"आग लगे इस मुँह में, यह भिक्षु का बाना क्यों पहना है?"
"तुम्हीं ने तो कहा था कि साधु होकर घर से निकल जाओ, मैं सन्तोष कर लेंगी। लो अब जाता हूँ।"
सुखदास ने जाने का उपक्रम किया तो सुन्दरी ने बढ़कर उसके पीत वस्त्र का पल्ला पकड़ लिया। रोते-रोते कहा-"हाय-हाय, यह क्या करते हो, अरे ठहरो, कहाँ जाते हो?"
"जाता हूँ।"
"अरे मुझे भरी जवानी में छोड़ जाते ही निर्दयी।"
"अरे, वाह रे भरी जवानी! कब तक जवान रहेगी!"
"जाने दो, मैं नूपुर नहीं मागूँगी।"
"अब तुम नूपुर लेकर ही रहना। मुझसे तुम्हारा क्या वास्ता! मैं चला।"
"अरे लोगो, देखो। मैं लुट गई। नहीं, मैं नहीं जाने ढूँगी।" वह रोती हुई सुखदास से लिपट गई।
"तब क्यों कहा था?"
"वह तो झूठमूठ कहा था।"
"तो प्रेमप्यारी जी, मैं भी झूठमूठ का भिक्षु बना हूँ, कोई सचमुच थोड़े ही!"
"अरे, यह क्या बात है!"
"किसी से कहना नहीं, गुपचुप की बात है।"
"अरे, तो तुम झूठमूठ क्यों मूंड़ मुड़ा बैठे?"
"तब क्या करता, मालिक की अकिल तो पिलपिली हो गई है। जवान को बैठे-बिठाए मूंड़ मुड़ाकर घर से निकाल दिया। भिक्षु बड़े पाजी होते हैं। और वह सबका गुरु घंटाल पूरा भेड़िया है। उसके दाँत सेठ की दौलत पर हैं। भैया पर न जाने कैसी बीते, मेरा उनके साथ रहना बहुत जरूरी है, समझी प्रेम-प्यारी जी!"
"पर मेरी क्या गत होगी यह कभी सोचा, नूपुर नहीं थे तो क्या तुम तो थे। इसी से सन्तोष था, अब तो तुम भी दूर हो जाओगे। आज झूठमूठ के साधु बने हो, कल सचमुच के बनने में क्या देर लगेगी।"
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