लोगों की राय

अतिरिक्त >> देवांगना

देवांगना

आचार्य चतुरसेन

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :128
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 9009
आईएसबीएन :9789350642702

Like this Hindi book 4 पाठकों को प्रिय

383 पाठक हैं

आस्था और प्रेम का धार्मिक कट्टरता और घृणा पर विजय का एक रोचक उपन्यास...

बौद्ध विहारों में एक परम्परा आसमिकों की थी। ये आसमिक एक प्रकार से बौद्ध विहारों की प्रजा अथवा क्रीतदास ही थे। विहारों के दान प्राप्त ग्रामों में इन्हें माफी की जमीन मिलती थी। उसे ये जोतते-बोते तथा विहारों को कर देते थे। विहारों के मठाधीश इनके साथ क्रीतदासों की भाँति व्यवहार करते थे-उनसे मनमानी बेगार लेते, उनके तरुण पुत्रों और पुत्रियों को भिक्षु-भिक्षुणी और देवदासी बना लेते, जो उनके विलास और लिप्सा का भोग बनते थे। बहुधा ये आसमिक विद्रोह करते थे। इन्हें जबर्दस्ती दबाया जाता था। उस समय इन पर रोमांचकारी अत्याचार किए जाते थे।

जहाँ छोटे-छोटे राजा-सामन्त परस्पर लड़ते और सारे देश के वातावरण को अशान्त और अराजक रखते थे-वहाँ देश-भर में यह धर्मान्धकार सारे समाज की अविद्या, अन्धविश्वास और अनाचार में धकेलता जा रहा था। ऐसा ही वह युग था। तब ईसा की बारहवीं शताब्दी बीत रही थी। उसी काल की घटना का वर्णन हम इस उपन्यास में कर रहे हैं।

सुखदास की स्त्री का नाम सुन्दरी था। वह यों तो भली स्त्री थी पर मिजाज की जरा चिड़चिड़ी थी। सुखदास घर-बार से बेपरवाह था। उसे अपने वेतन की भी चिन्ता न थी। वह नौकरी नहीं बजाता था, सेठ के घर को अपना घर समझता था।

जिस दिन कुमार दिवोदास की दीक्षा हुई, उससे एक दिन प्रथम सुखदास और उसकी पत्नी में खूब वाग्युद्ध हुआ था। वाग्युद्ध का मूल कारण यह था कि सुखदास ने तेईस वर्ष पूर्व सुन्दरी से उसके लिए एक जोड़ा नूपुर बनवा देने का वादा किया था। वे नूपुर उसने अभी तक बनवाकर नहीं दिए थे। तेईस वर्षों के इस अन्तर ने सुन्दरी को अधेड़ बना दिया था, प्रायः प्रतिदिन ही वह सुखदास से नूपुर का तकाजा करती थी और प्रतिदिन सुखदास उसे कल पर टाल देता था। इसी प्रकार कल करते-करते तेईस वर्ष बीत चुके थे। कल रात इस मामले ने बहुत गहरा रंग पकड़ा था। सुन्दरी को इसके लिए आँसू गिराने पड़े थे। और सुखदास ने प्रणबद्ध होकर वचन दिया था कि कल नूपुर नहीं बनवा दूँ तो घर-बार छोड़कर भिक्षु हो जाऊँगा। सुन्दरी को नूपुर पहनने की बड़ी अभिलाषा थी, वार्धक्य आने से भी वह कम नहीं हुई थी। उसने कहा ‘भिक्षु हो जाओगे तो सन्तोष कर लेंगी। पर यदि कल नूपुर न लाए तो देखना मैं कुएँ-तालाब में डूब मरूंगी।" सुखदास ''अच्छा, समझ गया।" कहकर घर से बाहर चला गया था।

आज सुखदास को एक साहस करना पड़ा। दिवोदास का भिक्षु होना वह सहन न कर सका। बौद्धों के पाखण्ड से वह खूब परिचित था। उसने चुपचाप दिवोदास की सहायता करने के लिए भिक्षु वेश धारण कर लिया। दाढ़ी-मूंछों का सफाया कर लिया और पीत कफनी पहन ली। उसने चुपचाप संघाराम में दिवोदास के पास रहने की ठान ली थी।

सुन्दरी आज बहुत क्रोध में थी। उसने निश्चय किया था, आज जैसे भी हो वह नूपुर बिना मैंगाये न रहेगी। जब देखो झूठा बहाना। बहाने ही बहाने में खाने-पहनने के दिन बीत गए। आज वह नहीं या मैं नहीं।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book