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देवांगना

आचार्य चतुरसेन

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :128
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 9009
आईएसबीएन :9789350642702

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आस्था और प्रेम का धार्मिक कट्टरता और घृणा पर विजय का एक रोचक उपन्यास...

भागवत धर्म, जिसकी उन्नति गुप्तों के राज्य में हुई थी, अब वैष्णव धर्म बन चुका था। समुद्रगुप्त और चन्द्रगुप्त द्वितीय जैसे परम प्रतापी गुप्त सम्राट् अपने को परम भागवत कहते थे। वास्तव में उन्हीं के समय में बौद्धों का हास होकर वैष्णव और शैवधर्म की प्रतिष्ठा हुई थी। गुप्तयुग के बाद तेरहवीं शताब्दी तक यह प्रतिक्रिया जारी रही। बौद्धधर्म का यद्यपि गुप्तकाल ही में हास होना आरम्भ हो चुका था पर मध्ययुग में वही भारत का मुख्य धर्म था। कन्नौज का प्रतापी महान् हर्ष यद्यपि बौद्ध न था, पर बड़ा भारी बौद्धों का समर्थक था। उसके राज्यकाल में सातवीं शताब्दी में जो चीनी पर्यटक भिक्षु हेनसांग भारत में आया था उसी ने साक्षी दी है कि उसके काल में ही बौद्धभिक्षु आलसी, प्रमादी और पतित हो चुके थे। और सर्वसाधारण के हृदयों में अब उनके लिए प्राचीन श्रद्धा न रह गई थी। न उनमें वह लोकहित सम्पादन की भावना रह गई थी, जिसके कारण वह देश-विदेश में प्रसारित हो गया था।

अब तो अलौकिक सिद्धियों और गुह्य उपासनाओं ही का बोलबाला था।

इस युग में भी शंकर, रामानुज और कुमारिल भट्ट ने उन्हें जबर्दस्त टक्कर दी थी। वैष्णव धर्म आरम्भ में यतिधर्म था और शुगकाल में ही वैष्णवों के मन्दिरों की स्थापना हो चुकी थी, पर मध्ययुग में वह सीधी-सादी भक्ति आडम्बर युक्त होने लगी। मन्दिर मूर्तियों में साज, श्रृंगार, नृत्य, गान का प्राधान्य बढ़ गया और अब मन्दिरों में स्थापित मूर्तियाँ केवल उपलक्षण व प्रतीक मात्र ही नहीं रह गई थीं, वे अब जाग्रत् देवता बन गई थीं। जिनको स्नान, भोग, साज, श्रृंगार, वस्त्र आदि के द्वारा सत्कृत करने की प्रथा बढ़ती जाती थी, और इस काल में, जैसा कि हम प्रथम वाममार्गी स्वरूप वैष्णव धर्म बन चुका था, जिसका नग्न-अश्लील वर्णन हम प्रसिद्ध गीत गोविन्द काव्य में पढ़ते हैं।

ऐसा ही यह धर्म का अन्धकारमय काल था। एक ओर ये धर्म केन्द्र अनाचारों के अड्डे बनते जा रहे थे-दूसरी ओर उनमें अथाह सम्पदा भरती जा रही थी। राजा-रईस-सेठ साहूकारों से लेकर सर्वसाधारण तक श्रद्धा, भय तथा अन्य कारणों से निरन्तर दान देते रहते थे। इससे मन्दिरों-मठों में सैकड़ों वर्ष की सम्पदा संचित हो गई थी। राज्य नष्ट होते थे, बदलते थे पर ये धर्मकेन्द्र स्थिर थे। इसलिए धर्मकेन्द्रों के मठाधीश और पुजारी महाधनवान् बन गए थे। प्रजा का धन हड़पने के वे निरन्तर षड्यन्त्र करते रहते थे। बहुधा राज्यों को भी उलट-पलट करने के षड्यन्त्र वे करते थे। अपने सहायक राज्य का प्रसार और विरोधी का पराभव करना इनके बायें हाथ का खेल था। इन धर्माचायों की यह क्षमता देख बहुत-से खटपटी राजा इनके हाथ की कठपुतली बन गए थे। वे इन्हें पूर्ण छूट देते थे, और राज्य के द्वारा लगाम ढीली होने पर ये सर्व-साधारण पर मनमाना अत्याचार करते थे। बहुधा वे जबर्दस्ती श्रीमन्तों के उत्तराधिकारियों को भिक्षु बना लेते जिससे उनकी सारी सम्पदा मठों को प्राप्त हो जाय।

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