अतिरिक्त >> देवांगना देवांगनाआचार्य चतुरसेन
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आस्था और प्रेम का धार्मिक कट्टरता और घृणा पर विजय का एक रोचक उपन्यास...
"आचार्य, यह भिक्खु कहता है....।"
"क्या?"
"समझ गया, तुम लोगों ने महानिर्वाण सुत घोखा नहीं।"
"क्या?"
"पाप, पाप, भारी पाप।"
"अरे कुछ कहोगे भी या यों ही पाप-पाप?"
"कैसे कहें, पाप लगेगा आचार्य।"
"कहो, मैंने पवित्र वचनों से तुम्हें पापमुक्त किया।"
"तब सुनिये, वह जो नया भिक्षु दिवोदास....।"
"धर्मानुज कहो। वह तो महाप्तामस में है?"
"जी हाँ।"
"महातामस में, वह चार मास में दोषमुक्त होगा।"
"किन्तु यह भिक्खु कहता है कि मैं वहाँ जाऊँगा।"
"क्यों रे?" आचार्य ने आँखें निकालकर सुखदास की ओर देखा।
सुखदास ने बद्धांजलि होकर कहा-"किन्तु आचार्य, भिक्षु धर्मानुज ने क्या अपराध किया?"
"अपराध? अरे तू उसे केवल अपराध ही कहता है।"
"आचार्य, मेरा अभिप्राय पाप से है।"
"महापाप किया है उसने, उसका मन भोग-वासना में लिप्त है, वह कहता
"तुम मूर्ख प्रतीत होते हो। नहीं जानते वह महाप्तामस में आचार्य की आज्ञा से प्रायश्चित कर रहा है!"
"यह महातामस कहाँ है भदन्त?"
"शान्तं पापं, अरे, महातामस में तुम जाओगे? जानते ही वहाँ जो जाता है उसका सिर कटकर गिर पड़ता है। वहाँ चौंसठ सहस्र डाकिनियों का पहरा है।"
"ओही हो, तो भदन्त, किस अपराध में भिक्षु धर्मानुज को महाप्तामस दिया गया है?"
इतने में दो-तीन भिक्षु वहाँ और आ गए। उन्होंने सुखदास की अन्तिम बात सुन ली। सुनकर वे बोल उठे-"मत कहो, मत कहो, कहने से पाप लगेगा।"
उसी समय आचार्य भी उधर आ निकले। आचार्य ने कहा :
"तुम लोग यहाँ क्या गोष्ठी कर रहे हो?"
"आचार्य, यह भिक्खु कहता है....।"
"क्या?"
"समझ गया, तुम लोगों ने महानिर्वाण सुत घोखा नहीं।"
"क्या?"
"पाप, पाप, भारी पाप।"
"अरे कुछ कहोगे भी या यों ही पाप-पाप?"
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