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देवांगना

आचार्य चतुरसेन

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :128
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 9009
आईएसबीएन :9789350642702

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आस्था और प्रेम का धार्मिक कट्टरता और घृणा पर विजय का एक रोचक उपन्यास...

"कैसे कहें, पाप लगेगा आचार्य।"

"कहो, मैंने पवित्र वचनों से तुम्हें पापमुक्त किया।"

"तब सुनिये, वह जो नया भिक्षु दिवोदास....।"

"धर्मानुज कहो। वह तो महाप्तामस में है?"

"जी हाँ।"

"महातामस में, वह चार मास में दोषमुक्त होगा।"

"किन्तु यह भिक्खु कहता है कि मैं वहाँ जाऊँगा।"

"क्यों रे?" आचार्य ने आँखें निकालकर सुखदास की ओर देखा।

सुखदास ने बद्धांजलि होकर कहा-"किन्तु आचार्य, भिक्षु धर्मानुज ने क्या अपराध किया?"

"अपराध? अरे तू उसे केवल अपराध ही कहता है।"

"आचार्य, मेरा अभिप्राय पाप से है।"

"महापाप किया है उसने, उसका मन भोग-वासना में लिप्त है, वह कहता है, उस पर बलात्कार हुआ है। मन की शुद्धि के लिए संघ स्थविर ने उसे चार मास के महाप्तामस का आदेश दिया है।"

"कैसी मन की शुद्धि आचार्य?"

"अरे! तू कैसा भिक्षु है विहार के साधारण धर्म को भी नहीं जानता?"

"किन्तु इसी बात में इतना दोष?"

"बुद्ध शरण। तू निरा मूर्ख है। तुझे भी प्रायश्चित करना होगा?"

"क्या गरम सीसा पीना होगा?"

"ठीक नहीं कह सकता, विधान पिटक में तेरे लिए दस हजार प्रायश्चित हैं।"

"बाप रे, दस हजार?"

"जाता हूँ, अभी मुझे सूत्रपाठ करना है। देखता हूँ विहार अनाचार का केन्द्र बनता जा रहा है।"

आचार्य बड़बड़ाते एक ओर चल दिए। सुखदास मुँह बाए खड़ा रह गया।

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