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देवांगना

आचार्य चतुरसेन

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :128
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 9009
आईएसबीएन :9789350642702

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आस्था और प्रेम का धार्मिक कट्टरता और घृणा पर विजय का एक रोचक उपन्यास...

प्रसाद लेकर मन्त्री ने कहा-"अनुगृहीत हुआ आचार्य।"

"मन्त्रिवर, आपकी सद्धर्म में ऐसी ही श्रद्धा बनी रहे।"

"आचार्य काशिराज आप ही के अनुग्रह पर निर्भर हैं।"

"तो अमात्यराज, मैं उनकी कल्याण कामना से बाहर नहीं हूँ।"

"ऐसी ही हमारी भावना है, क्या मैं कुछ निवेदन करूं?"

"क्यों नहीं?"

"क्या लिच्छविराज काशी पर अभियान करना चाहते हैं?"

"मुझे विश्वस्त सूत्र से पता लगा है।"

"तो उस राजनीति को मैं क्या जानूँ?"

"लिच्छविराज तो आपके अनुगत हैं आचार्य!" नहीं।"

"परन्तु आचार्य, वे आपकी बात नहीं टालेंगे।"

"क्या आप यह चाहते हैं कि मैं लिच्छविराज से काशिराज के लिए अनुरोध करू?"

"मैं नहीं आचार्य, काशिराज का यह अनुरोध है।"

"क्या काशिराज ने ऐसा कोई लेख आपके द्वारा भेजा है?"

"यह है आचार्य।"

लेख पढ़कर कुछ देर बाद वज्रसिद्धि ने गम्भीर मुद्रा से कहा :

"तो मैं काशिराज का अतिथि बनूँगा।"

"मैं यज्ञ में आऊँगा।"

"अनुग्रह हुआ आचार्य।"

"तो महामात्य, एक बात है, लिच्छविराज का आक्रमण रोक दिया जायेगा, पर लिच्छविराज का अनुरोध काशिराज को मानना पड़ेगा।"

"वह क्या?"

"यह मैं अभी कैसे कहूँ?"

"तब?"

"क्या काशिराज मुझ पर निर्भर नहीं है?"

"तब उनकी कल्याण-कामना से मैं जैसा ठीक समझूंगा करूंगा?"

"ऐसा ही सही आचार्य, काशिराज तो आपके शरण हैं।"

"काशिराज का कल्याण हो।"

मन्त्री ने अभिवादन किया और चले गए। आचार्य वज्रसिद्धि बड़ी देर तक कुछ सोचते रहे। इससे सन्देह नहीं कि सुखदास ने यह सब बातें अक्षरश: सुन लीं।

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