अतिरिक्त >> देवांगना देवांगनाआचार्य चतुरसेन
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आस्था और प्रेम का धार्मिक कट्टरता और घृणा पर विजय का एक रोचक उपन्यास...
गूढ़ योजना
मन्त्री के जाते ही महानन्द ने सम्मुख आकर कहा : "अब आचार्य की मुझे क्या आज्ञा है?"
"वाराणसी चलना होगा भद्र, साथ कौन जायेगा?"
"क्यों, मैं?"
"नहीं, तुम्हें मेरा सन्देश लेकर अभी लिच्छविराज के पास जाना होगा।"
"तब?"
"धर्मानुज, और ग्यारह भिक्षु और, कुल बारह।"
"उसमें कारण है, उसे मैं यहाँ अकेला नहीं छोडुंगा। सम्भव है यज्ञ ही युद्धक्षेत्र हो जाय।"
"यह भी ठीक है, परन्तु उसका प्रायश्चित।"
"उसे मैं अपने पवित्र वचनों से अभी दोषमुक्त कर दूँगा।"
महानन्द ने हँसकर कहा-"आप सर्वशक्तिमान् पुरुष हैं।"
वज्रसिद्धि भी हँस दिए। उन्होंने कहा-"ग्यारह शिष्य छाँटो, मैं धर्मानुज को देखता हूँ।"
"जैसी आचार्य की आज्ञा।"
अँधेरे और गन्दे तलगृह में धर्मानुज काष्ठफलक पर बैठा कुछ सोच रहा था। वह सोच रहा था-"जीवन के प्रभात में महल-अटारी, सुख-साज त्याग कर क्या पाया? यह गन्दी, घृणित और अँधेरी कोठरी? बाहर कैसा सुन्दर संसार है, धूप खिल रही है। मन्द पवन के झोंके चल रहे हैं। पत्ती भाँति-भाँति के गीत गा रहे हैं। परन्तु धर्म के लिए इन सबको त्यागना पड़ता है। यह धर्म क्या वस्तु है? यहाँ जो कुछ है-यदि यही धर्म है, तब तो वह मनुष्य का कट्टर शत्रु दीख पड़ता है।"
इसी समय सुखदास ने वहाँ पहुँचकर झरोखे से झाँककर देखा। भीतर अँधेरे में वह सब कुछ देख न सका। परन्तु उसे दिवोदास के उद्गार कुछ सुनाई दिए। उसका हृदय क्रोध और दु:ख से भर गया।
उसने बाहर से खटका किया।
धर्मानुज ने खिड़की की ओर मुँह करके कहा-‘कौन है भाई?"
"भैयाजी, क्या हाल है? अभी आत्मा पवित्र हुई या नहीं?"
"मैं.मैं! सुखदास?" ‘पितृव्य ? अरे, तुम यहाँ कहाँ?"
"चुप! मैं सुखानन्द भिक्षु हूँ, तुम्हारी कल्याण कामना से यहाँ आया हूँ।"
"उसके लिए तो संघस्थविर ही यथेष्ट थे, इस अन्ध नरक में मेरी यथेष्ट कल्याण कामना हो रही है।"
"आज इस नरक से तुम्हारा उद्धार होगा, आशीर्वाद देता हूँ।"
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