अतिरिक्त >> देवांगना देवांगनाआचार्य चतुरसेन
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आस्था और प्रेम का धार्मिक कट्टरता और घृणा पर विजय का एक रोचक उपन्यास...
मनोहर प्रभात
बड़ा मनोहर प्रभात था। शीतल-मन्द समीर झकोरे ले रहा था। मंजुघोषा प्रात:कालीन थी। उसका हृदय आनन्द से उल्लसित था। कोई भीतर से उसके हृदय को गुदगुदा रहा था। एक सखी ने पास आकर कहा : "बहुत खुश दीख पड़ती हो, कहो, कहीं लड्डू मिला है क्या?"
मंजु ने हँसकर कहा-"मिला तो तुम्हें क्या?"
"बहिन, हमें भी हिस्सा दो।"
"वाह, बड़ी हिस्से वाली आई।"
इतने में एक और आ जुटी। उसने कहा-"यह काहे का हिस्सा है बहिन!"
पहिली देवदासी ने कहा : मंजु ने खीजकर कहा-"जाओ, मैं तुमसे नहीं बोलती।"
सबने कहा-"हाँ बहिन, यह उचित भी है। बोलने वाले नये जो पैदा हो गए।"
"तुम बहुत दुष्ट हो गई हो।"
"हमने तो केवल नजरें पहचानी थीं।"
"और हमने देन-लेन भी देखा था।"
"पर केवल ऑखों-ऑखों ही में।"
"होंठों में नहीं?"
"अरे वाह, इसी से सखी के होंठों में आनन्द की रेख फूटी पड़ती है।"
"और नेत्रों से रसधार बह रही है।"
मंजु ने कहा-"तुम न मानोगी?"
एक ने कहा-"अरी, सखी की तंग न करो। हिस्सा नहीं मिलेगा।"
दूसरी ने कहा-"कैसे नहीं मिलेगा, हम उससे माँगेंगी।"
तीसरी बोली-"किससे?"
"भिक्षु से।"
मंजु ने कोप से कहा-"लो मैं जाती हूँ।"
"कौन भिक्षु? कैसा भिक्षु?’’
"अजी वही, जिससे रात में फूल-माला लेकर चुपचाप कुछ दे दिया था।"
"और हमसे पूछा भी नहीं!"
"तुम सब दीवानी हो गई हो।"
"सच है बहिन, हमारी बहिन खड़े-खड़े लुट गई तो हम दीवानी भी न हों।"
मंजु उठकर खड़ी हुई। इस पर उसे सबने पकड़कर कहा : "रूठ गई रानी, भला हमसे क्या परदा ? हम तो एक ही थैली के चट्टे-बट्टे है।"
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