अतिरिक्त >> देवांगना देवांगनाआचार्य चतुरसेन
|
383 पाठक हैं |
आस्था और प्रेम का धार्मिक कट्टरता और घृणा पर विजय का एक रोचक उपन्यास...
"और देवताओं की दासियां हैं।"
"अजी देवताओं की क्यों? देवताओं के दासों की भी।"
"पर सखी, भिक्षु है एक ही छेला।"
"भिक्षु है तो क्या है? सैकड़ों नागरों से बढ़-चढ़कर है।"
"चल रहने दे, दुनिया में एक से एक बढ़कर भरे पड़े हैं।"
"अरी जा, हमने देखा है तेरा वह छेला, गधे की तरह रेंकता है।"
"अरी लड़ती क्यों हो, भिक्षु है किसी बड़े घर का लड़का।"
"सुना है बड़े सेठ का बेटा है।"
"होगा, अब तो भिक्षु है।"
मंजु ने कहा-"भिक्षु है तो क्या, हृदय का तो वह राजा है!"
सखी ने कहा-"अरे, हमारी सखी मंजु उसके हृदय की रानी है।"
"अच्छा, तो फिर?"
“बस तो फिर, हिस्सा ।"
"जाओ-जाओ, मुँह धो रखो।"
मंजु भागकर दूसरी ओर चली गई। सखियाँ खिलखिलाकर हँसने लगीं। मंजु एक गीत की कड़ी गुनगुनाती फिर फूल चुनने लगी। चुनते-चुनते वह सखियों से दूर जा पड़ी। उधर उद्यान में एक तालाब था। उसी तालाब के किनारे हरी-हरी घास पर दिवोदास और सुखानन्द बैठे बातचीत कर रहे थे। फूल तोड़ते-तोड़ते मंजु वहीं जा पहुँची। दिवोदास को देखा तो वह धक् से रह गई। दिवोदास ने भी उसे देखा। उसने कहा-"पितृव्य, यह तो वही देवदासी आ रही है।"
"तो भैया, यहाँ से भगा चलो, नहीं फंस जाओगे।"
परन्तु दिवोदास ने सुखदास की बात नहीं सुनी। वह उठकर मंजु के निकट पहुँचा और कहा : "यह तो अयाचित दर्शन हुआ।"
"किसका?"
"आपका।"
"नहीं, आपका।"
"किन्तु आप देवी हैं।"
"नहीं, मैं देवदासी हूँ।"
"भाग्यशालिनी देवी।"
"अभागिनी देवदासी।"
अब सुखदास भी उठकर वहाँ आ गया। उसने पिछली बात सुनकर कहा : "नहीं, नहीं, ऐसा न कही देवी।"
दिवोदास ने कहा-"तुम प्रभात की पहिली किरण के समान उज्ज्वल और पवित्र हो।"
"मैं मिट्टी के ढेले के समान निस्सार और निरर्थक हूँ।"
"अरे, आँखों में आँसू? पितृव्य, यह इतना दु:खी क्यों?"
सुखदास ने कहा-"जो कली अभी खिली भी नहीं, सुगन्ध और पराग अभी फूटा भी नहीं, उसमें कीड़ा लग गया है?"
|