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देवांगना

आचार्य चतुरसेन

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :128
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 9009
आईएसबीएन :9789350642702

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आस्था और प्रेम का धार्मिक कट्टरता और घृणा पर विजय का एक रोचक उपन्यास...

दिवोदास ने कहा-"बोलो, तुम्हें क्या दु:ख है?"

"मैं अज्ञातकुलशीला अकेली, असहाया, अभागिनी देवदासी हूँ, इसमें मेरा सारा दु:ख-सुख है।"

"तो मेरे ये प्राण और शरीर तुम्हारे लिए अर्पित हैं।"

"मैं कृतार्थ हुई, किन्तु अब जाती हूँ।"

"इस तरह न जा सकोगी, तुमने अपने आँसुओं में मुझे बहा दिया है, कहो

क्या करने से तुम्हारा दु:ख दूर होगा। तुम्हारे दु:ख दूर करने में मेरे प्राण भी जाएँ, तो यह मेरा अहोभाग्य होगा।"

सुखदास ने कहा-"अपने दिल की गाँठ खोल दो देवी, भैया बात के बड़े धनी हैं।"

"क्या कहूँ, मेरा भाग्य ही मेरा सबसे बड़ा दु:ख है। विधाता ने जब देवदासी होना मेरे ललाट में लिख दिया, तो समझ लो कि सब दु:ख मेरे ही लिए सिरजे गए हैं। जिस स्त्री का अपने शरीर और प्राणों पर अधिकार नहीं, जिसकी आत्मा बिक चुकी है, जिसके हृदय पर दासता की मुहर है, प्रतिष्ठा, सतीत्व, पवित्रता जिसके जीवन को छू नहीं सकते, जिसका रूप-यौवन सबके लिए खुला हुआ है, जो दिखाने को देवता के लिए श्रृंगार करती है, परन्तु जिसका श्रृंगार वास्तव में देवदर्शन के लिए नहीं, श्रृंगार को देखने आए हुए लम्पट कुत्तों के रिझाने के लिए हैं, ऐसी अभागिनी देवदासी के लिए अपने पवित्र बहुमूल्य प्राणों को दे डालने का संकल्प न करो भिक्षु।"

उसने चलने को कदम बढ़ाया। परन्तु दिवोदास ने आगे आकर और राह रोककर कहा-"समझ गया, परन्तु ठहरो। मुझे एक बात का उत्तर दो। तुम इस नन्हे-से हृदय में इतना दु:ख लिए फिरती हो, फिर तुम उस दिन किस तरह नृत्य करती हुई उल्लास की मूर्ति बनी हुई थी?"

"इसके लिए हम विवश हैं, यह हमारी कला है, उसका हमने वर्षों अभ्यास किया है।"

उसने हँसने की चेष्टा की। पर उसकी आँखों से झर-झर आँसू गिरने लगे।

दिवोदास ने उसका हाथ थामकर दृढ़ स्वर में कहा-"देवी, मैं तुम्हें प्रत्येक मूल्य पर इस दासता से मुक्त करूंगा, मैं तुम्हारे हृदय को आनन्द और उमंगों से भर दूंगा।"

दिवोदास ने उसके बिल्कुल निकट आ स्नेहसिक्त स्वर में कहा-"मैं तुम्हारे जीवन की कली-कली खिला दूँगा।"

उसने एक बड़ा-सा फूल उसकी डोलची में से उठाकर, उसके जुड़े में खोंस दिया। और उसके कन्धे पर हाथ धरकर कहा : "तुम्हारा नाम?"

"मंजुघोषा, पर तुम 'मंजु याद रखना, और तुम्हारा प्रिय?"

"मैं भिक्षु धर्मानुज हूँ।"

“धर्मानुज ?"

एक हास्यरेखा उसके होंठों पर आई और एक कटाक्ष दिवोदास पर छोड़ती हुई वह वहाँ से भाग गई।

सुखदास ने कहा-"भैया, यह बड़ी अच्छी लड़की है।"

"पितृव्य, तुम सदा उस पर नजर रखना, उसकी रक्षा करना, उसे कभी आँखों से ओझल नहीं होने देना, मुझे उसकी खबर देते रहना।"

सुखदास ने हँसकर कहा-"फिकर मत करो भैया, इसी से तुम्हारी सगाई कराऊँगा।"

सुखदास एक गीत की कड़ी गुनगुनाने लगा।

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