अतिरिक्त >> देवांगना देवांगनाआचार्य चतुरसेन
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आस्था और प्रेम का धार्मिक कट्टरता और घृणा पर विजय का एक रोचक उपन्यास...
सातवीं शताब्दी के आरम्भ में जब भारत में महानृप हर्ष का अबाध शासन चल रहा था उस समय सारा तिब्बत घुमन्तू जीवन व्यतीत कर रहा था। इसी समय तिब्बत में सातवीं शताब्दी का सबसे बड़ा विजेता स्रोडगचन-सान-यो का जन्म हुआ। उसने सब घुमक्कड़ सरदारियों को तोड़कर भोट जाति का एकीकरण किया और उनकी सेना का संगठन कर, उसने आसाम से काश्मीर तक के सारे हिमालय और चीन के तीन प्रदेशों को जीत लिया। उसके राज्य की सीमा हिमालय की तराई से पूर्वी मध्य एशिया के भीतर शान-सान की पहाड़ियों तक विस्तृत थी। तिब्बत से बाहर आते ही उत्तर-दक्षिण, पूर्व-पश्चिम जिधर भी उसने पैर बढ़ाया सर्वत्र बौद्ध सम्पर्क में आना पड़ा। उसके राज्य के दक्षिणी अंचल नेपाल और काश्मीर थे, जो भारत के भाग होने के कारण बुद्ध की जन्मभूमि समझे जाते थे। उत्तर और पूर्व में तुर्क और चीन के समृद्ध बौद्ध राज्य थे। इन सबके सम्पर्क में आकर इस नये विजेता के नेतृत्व में तिब्बत ने नये सांस्कृतिक रूप को धारण किया। उसने चीन और नेपाल की राकुमारियों से विवाह किया। लासा को राजधानी बनाया। पड़ोसी देशों की तड़क-भड़क के अनुरूप ही इस असंस्कृत सम्राट् ने अपने नगर को सांस्कृतिक रूप दिया। नेपाल और चीन की रानियों ने बुद्ध मूर्ति की राजधानी में स्थापना की और उसके चतुर मन्त्री सम्मोटा ने भोट भाषा को लिपिबद्ध कर, लिखा-पढ़ी के द्वारा राज-काज चलाना आरम्भ किया। सम्राट् ने स्वयं लिखने-पढ़ने का अभ्यास किया। फिर बौद्ध ग्रन्थों का, वैद्यक ग्रन्थों का और गणित की पुस्तकों का भोट भाषा में अनुवाद हुआ। और इस प्रकार नये सम्राट् की नयी जनता शिक्षित होने लगी। और जन-जागरण के साथ-साथ ही भोट जाति में बौद्ध धर्म के संस्कारों का उदय हुआ।
इस सम्राट् के 100 वर्ष बाद नालन्दा के महान् दार्शनिक शान्तिरक्षित तिब्बत में आमन्त्रित किए गए। उन्होंने वहाँ पहिला मठ स्थापित किया और मगधेश्वर महाराज धर्मपाल के बनवाए उदन्तपुरी के महाविहार के अनुरूप विहार की नींव डाली गई। नालन्दा से आचार्य शान्तिरक्षित ने बारह भिक्षु बुलाए और सात भोटदेशीय कुलपुत्रों को भिक्षु बनाया। इस प्रकार भिक्षु संघ और भिक्षु विहार की तिब्बत में स्थापना हुई। 100 वर्ष की आयु में आचार्य का शरीरपात हुआ और उनका शरीर विहार की पहाड़ी पर एक स्तूप में रखा गया। उन्होंने जीवन के 25 वर्ष तिब्बत में व्यतीत किए और अब तक वे वहाँ बोधिसत्व की भाँति पूजे जाते हैं। इसके बाद आचार्य कमलशील तिब्बत गए। अब तिब्बत का साम्राज्य और विस्तृत हो गया था। वहाँ बहुत-से बौद्ध विद्वान् पहुँच चुके थे। स्वयं तिब्बत में भी अनेक आचार्य उत्पन्न हो गए थे। परन्तु नवीं शताब्दी में सम्राट् दटम ने बौद्धों पर अत्याचार आरम्भ कर बौद्धधर्म को तिब्बत से बहिष्कृत करने की चेष्टा की। ग्यारहवीं शताब्दी में आचार्य दीपंकर श्रीज्ञान अतिश तिब्बत गए और उन्होंने नये सिरे से वहाँ बौद्धधर्म की प्रतिष्ठा की।
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