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देवांगना

आचार्य चतुरसेन

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :128
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 9009
आईएसबीएन :9789350642702

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आस्था और प्रेम का धार्मिक कट्टरता और घृणा पर विजय का एक रोचक उपन्यास...

 

राजा का साला


उन दिनों राजा के सालों का भी बहुत महत्त्व था। विलासी राजा लोग नीच-ऊँच, जात-पाँत का बिना विचार किए सब जाति की लड़कियों को अपनी रानी बना लेते थे। विवाह करके और बिना विवाह के भी। आर्यों के धर्म में पुरानी मर्यादा चली आई है कि उच्च जाति के लोग नीच जाति की लड़की से विवाह कर सकते थे। यह मर्यादा अन्य जाति वालों ने इस काल में बहुत कुछ त्याग दी थी और वे अपनी ही जाति में विवाह करने लगे थे। पर राजा अभी तक जात-पाँत की परवाह न करते थे। छोटी जाति की सुन्दरी लड़कियों को खोज-खोजकर अपनी अंकशायिनी बनाते थे। बहुत लोग अपना मतलब साधने के लिए अपनी लड़कियाँ घूस दे-देकर राजा के रंग महल में भेजते थे। खास कर प्रधानमन्त्री की लड़की तो राजा की एक रानी बनती ही थी, जो उसके लिए चतुर जासूस और आलोचक का काम देती थी। इस प्रथा का एक परिणाम यह होता था कि राजा के सालों की एक फौज तैयार हो जाती थी। नीच जाति के दुश्चरित्र लोग किसी भी ऐसी लड़की से सम्बन्ध जोड़कर-जो किसी भी रूप में रंग-महल में राजा की अंकशायिनी हो चुकी हो-उसके भाई बन जाते और अपने को बड़ी अकड़ से राजा का साला घोषित करते थे। इन राजा के सालों की कहीं कोई दाद-फरियाद न थी। ये चाहे जिस भले आदमी के घर में घुस जाते, उसकी कोई भी वस्तु उठा ले जाते, हाट-बाजार से दूकानदारों का माल उठाकर चम्पत हो जाते। इन पर कोई मामला मुकदमा नहीं चला सकता था। ‘मैं राजा का साला', इतना ही कह देने भर से न्यायालय के न्यायाधीश भी उनके लिए कुर्सी छोड़ देते थे। बहुधा इन सालों का प्रवेश राजदरबार में हो जाता था। और योग्यता की चिन्ता न करके इन्हें राज्य में बड़े-बड़े पद मिल जाते थे। वहाँ बैठकर ये लोग अन्धेर-गर्दियाँ किया करते थे। ऐसा ही वह सामन्ती काल था, जब बारहवीं शताब्दी समाप्त हो रही थी।

काशी के बाजार में काशिराज का साला शम्भुदेव मुसाहिबों सहित नगर भ्रमण को निकला। हाट-बाजार सुनसान था। दूकानें बन्द थीं। पहर रात बीत चुकी थी। सड़कों पर धुंधला प्रकाश छा रहा था। राजा का यह साला नगर कोतवाल भी था।

चलते-चलते उसने मुसाहिबों से कहा-"खेद है कि कामदेव के बाणों से घायल होकर रात-दिन सुरा-सुन्दरियों में मन फंस जाने से नगर का कुछ हाल-चाल महीनों से नहीं मिल रहा है।"

मुसाहिब ने हाथ बाँधकर कहा-"धन-धम-मूर्ति, आपको नगर की इतनी चिन्ता है!"

शम्भुदेव ने कपाल पर आँखें चढ़ाकर कहा-"नगर की चिन्ता मुझे न होगी तो क्या राजा की होगी! अरे, आखिर नगर कोतवाल मैं हूँ या राजा?"

सब मुसाहिबों ने हाथ बाँधकर कहा-"हाँ, महाराज, हाँ, आप ही नगर कोटपाल हैं धर्मावतार।"

"तब हमें ही राजा समझी। राजा के बाद बस." उसने एक विशेष प्रकार का संकेत किया और हँस दिया।

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