| 
			 अतिरिक्त >> देवांगना देवांगनाआचार्य चतुरसेन
  | 
        
		  
		  
		  
          
			 
			 383 पाठक हैं  | 
     ||||||
आस्था और प्रेम का धार्मिक कट्टरता और घृणा पर विजय का एक रोचक उपन्यास...
"सुन लड़के, सिद्धेश्वर उस बालिका पर भी पाप दृष्टि रखता है। उसकी रक्षा के लिए उसकी माता का उद्धार करना आवश्यक है।
"मैं अभी उस पाखण्डी सिद्धेश्वर का सिर धड़ से पृथक् करता हूँ।"
"किन्तु, पुत्र, बल प्रयोग पशु करते हैं। फिर हमें अपने बलाबल का भी विचार करना है।"
"आपकी क्या योजना है?"
"युक्ति।"
"कहिए।"
"कर सकोगे?"
"अवश्य।"
वज़सिद्धि ने एक गुप्त पत्र देकर कहा :
"पहले, इसे चुपचाप सुनयना को पहुँचा दी। लेखन सामग्री भी ले जाना-इसके उत्तर आने पर सब कुछ निर्भर है।"
"क्या निर्भर है?"
"सुनयना का सन्देश पाकर लिच्छविराज काशी पर अभियान करेगा।"
"समझ गया, किन्तु प्रहरी?"
"लो, यह सबका मुँह बन्द कर देगी।" आचार्य ने मुहरों से भरी एक थैली दिवोदास के हाथों में पकड़ा दी। साथ ही एक तीक्ष्ण कटार भी।
"इसका क्या होगा?"
"आत्म-रक्षा के लिए।"
"ठीक है।"
यह सुनकर स्वस्थ हो आचार्य ने कहा-"तो पुत्र, तुम जाओ। तुम्हारा कल्याण हो।"
बाहर आकर दिवोदास ने देखा, सुखदास खड़ा है। उसने उसे देखकर प्रसन्न होकर कहा—“सुना?"
"सुना।"
"यह देखो, उसने मुहरों की थैली दी है।"
"देखी, और यह छुरी भी देखी।" सुखदास ने हँस दिया।
"मतलब समझे?"
"पहले ही से समझे बैठा हूँ। तुम चिन्ता न करो, चलो मेरे साथ।" दोनों एक ओर को चल दिए।
						
  | 
				|||||

 
		 






			 

