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देवांगना

आचार्य चतुरसेन

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :128
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 9009
आईएसबीएन :9789350642702

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आस्था और प्रेम का धार्मिक कट्टरता और घृणा पर विजय का एक रोचक उपन्यास...

मंजु ने कहा-"सखी, मेरी सहायता कर!"

"जो तू कहे।"

"मुझे वहाँ जाने दें।"

"कैसे?’

"तू मेरे लिए त्याग कर।"

"तेरे लिए मेरे प्राण भी उपस्थित हैं।"

"तो तू यहाँ मेरे स्थान में रह, मैं तेरे वस्त्र पहनकर निकल जाऊँगी।"

"तो तू जा।"

"पर जानती है, तेरी क्या गत बनेगी।"

"वे मेरा वध करेंगे, मैं सह लेंगी।"

"हाय सखी-कैसे कहूँ।"

"मेरी चिन्ता न कर।'

मंजु ने जल्दी-जल्दी सखी के वस्त्र पहने। अपने उसे पहनाए। भोजन की सामग्री हाथ में ली और बन्धन से बाहर हो गई। प्रहरी कुछ भी न जान सका।

मंजु चल दी। किसी ने उसे लक्ष्य नहीं किया। वह पागल की भाँति भागी चली जा रही थी। भूख, प्यास और थकान ने उसके कोमल गात्र को क्लान्त कर दिया। उसके पैरों में घाव हो गये और वह बारम्बार लड़खड़ाकर गिरने लगी। वह गिरती, उठती-और फिर भागती। घोर वन था। बड़ी तेज धूप थी। सामने भयानक विस्तार वाली नदी के उस पार, सूखी नंगी पहाड़ी पर ऊँचा सिर उठाए

वह एकान्त दुर्ग था। वह साहस करके नदी में कूद पड़ी। लहरों के साथ डूबती-उतराती वह उस पार जा पहुँची।

उसकी शक्ति ने जवाब दे दिया। परन्तु वह चलती ही चली गई। दुर्गम पहाड़ पर चढ़ना-बड़ा दुस्साहस का कार्य था परन्तु प्रेम का बल उसे मिलता गया-वह दुर्ग द्वार पर पहुँच गई। दुर्ग का द्वार बन्द था। उसकी भारी लौह श्रृंखलाओं में मजबूत ताला पड़ा था। उसने व्याकुल दृष्टि से चारों ओर देखा-उस दुर्गम कान्तार दुर्ग में चिड़िया का पूत भी न था। उसने एक बार दुर्ग के चारों ओर चक्कर लगाया। अन्त में निराश हो थककर वह एक शिलाखण्ड पर पड़ गई। उसे नींद आ गई। न जाने वह कब तक सोती रही। जब उसकी आँखें खुलीं तो देखा-सूर्य अस्त हो रहा है, और एक वृद्ध चरवाहा उसके निकट खड़ा है।

वह हड़बड़ाकर उठ बैठी। वृद्ध चरवाहे ने कहा-"तुम कौन हो और यहाँ कैसे आई?"

"मैं विपत्ति की मारी दुखित स्त्री हूँ बाबा, भाग्य-दोष से यहाँ आ फंसी हूँ।"

"परन्तु यहाँ सिंह रहता है, तुझे खा जायेगा। बस्ती दूर है, तू रात कहाँ व्यतीत करेगी?"

"मैं चाहती हूँ सिंह मुझे खा जाय?"

"एक पुरुष इस दुर्ग में बन्द भूखा मर रहा है।"

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