अतिरिक्त >> देवांगना देवांगनाआचार्य चतुरसेन
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आस्था और प्रेम का धार्मिक कट्टरता और घृणा पर विजय का एक रोचक उपन्यास...
"तुझे किसने कहा?"
"मैं जानती हूँ। उसी के लिए मैं यहाँ आई थी। किन्तु भीतर जाऊँ कैसे?"
"भीतर ही जाना है तो मैं पहुँचा सकता हूँ, परन्तु वहाँ कोई मनुष्य नहीं है।"
"क्या तुम जानते ही बाबा?"
"मैं तो वहाँ नित्य आता-जाता हूँ।"
"क्या भीतर जाने की कोई और भी राह है।"
"वह मैंने अपने लिए बनाई है।" बूढ़ा चरवाहा हँस दिया।
"तो बाबा, मुझे वहाँ पहुँचा दो।"
"परन्तु रात होने में देर नहीं है, फिर मेरा भी गाँव लौटना कैसे होगा।"
"वहाँ एक मनुष्य भूखा मर रहा है बाबा।"
"तब चल, मैं चलता हूँ।"
दोनों टेढ़े-मेढ़े रास्ते से चलने लगे। मंजु में चलने की शक्ति नहीं रही थी। परन्तु वह चलती ही गई। अन्त में एक खोह में घुसकर चरवाहे ने एक पत्थर खिसकाकर कहा-"इसी में चलना होगा।" वह प्रथम स्वयं ही भीतर गया। पीछे मंजु भी घुस गई। थोड़ा चलने पर एक विस्तृत मैदान दीख पड़ा। दूर किसी अट्टालिका के भग्न अवशेष थे।
"वहाँ चले बाबा" मंजु ने उधर संकेत करके कहा। चरवाहे ने आपत्ति नहीं की। खंडहर के पास पहुँचकर मंजु जोर से दिवोदास को पुकारने लगी। उसकी ध्वनि गूँजकर उसके निकट आने लगी। परन्तु वहाँ कहीं किसी जीवित मनुष्य का चिह भी न था।
बूढ़े ने कहा-"मैंने तो तुमसे कहा था-यहाँ कोई मनुष्य नहीं है, अब रात को गाँव पहुँचना भी दूभर है, राह में सिंह के मिलने का भय है, पर मैं जा सकता हूँ। क्या तू यहाँ अकेली रहेगी? या गाँव तक चल सकती है?"
"बाबा, मैं यहीं प्राण ढूँगी। आपका उपकार नहीं भूलेंगी। आप जाइए।"
"मेरी चिन्ता न करें-मेरा जीवन अब निरर्थक ही है।"
इसी समय उसे ऐसा भान हुआ, जैसे किसी ने जोर से साँस ली हो।
मंजु ने चौंककर कहा-"आपने कुछ सुना; यहाँ किसी ने साँस ली है।"
वह लपककर खोह में घुस गई। उसने देखा-एक शिलाखण्ड पर दिवोदास मूच्छित पड़ा है। चरवाहा भी पहुँच गया। उसने दूर ही से पूछा-"मर गया या जीवित है?"
मंजु ने रोते हुए कहा-"बाबा, यहाँ कहीं पानी है?"
"उधर है," और वह निकट पहुँच गया।
उसने दिवोदास को ध्यान से देखा और कहा-"आओ, इसे उधर ही ले चलें। बच जायगा।"
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