अतिरिक्त >> देवांगना देवांगनाआचार्य चतुरसेन
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आस्था और प्रेम का धार्मिक कट्टरता और घृणा पर विजय का एक रोचक उपन्यास...
दोनों ने दिवोदास की मूच्छित देह को उठा लिया, और जहाँ जल की पुष्करिणी थी वहाँ ले गए। यहाँ बाँधकर वर्षा का जल रोका गया था। थोड़ा जल पीने तथा मुँह और आँखों पर छिड़कने से थोड़ी देर में दिवोदास को होश आ गया। उसने आँखें खोलकर मंजु को देखा-उसके होंठ से निकला-"मंजु प्रिये।"
मंजु उसके वक्ष पर गिरकर फफक-फफक कर रोने लगी।
दिवोदास ने धीमे स्वर से कहा-"मैं जानता था कि तुम आओगी, सो तुम आ गई।" उसने मंजु को हृदय से लगा लिया। कुछ देर बाद कहा-
"अब मैं सुख से मर सकूंगा।"
"मरेंगे तुम्हारे शत्रु।" उसने दृढ़ता से उठकर दिवोदास का सिर अपनी गोद में रख लिया।
"प्यारी, तुमने मुझे जिला दिया।" दिवोदास ने कहा।
"मैंने नहीं प्रिय, इस देव पुरुष ने", मंजु ने उस चरवाहे की ओर संकेत किया। दिवोदास ने अब तक उसे नहीं देखा था। अब उसकी ओर देखकर कहा :
"तुम कौन हो भाई।"
"मैं चरवाहा हूँ, पास ही गाँव में रहता हूँ, यहाँ नित्य बकरी चराता हूँ। भीतर आने-जाने की राह यह मैंने अपने लिए बना ली थी। संध्या को जब में घर लोट रहा था इन्हें मूच्छित पड़ा देखा। इसी से रुक गया। लड़के को बकरी लेकर घर भेज दिया। सो अच्छा ही हुआ-दो-दो प्राणी बच गए।" बूढ़ा बहुत खुश था।
दिवोदास ने कहा-"बचा लिया तुमने बाबा, तुम उस जन्म के मेरे पिता हो। अब यहाँ मेरे पास आकर बैठो।" बूढ़ा भी वहीं बैठ गया। उसने कहा-"अब तो रात यहीं काटनी होगी। परन्तु खाने को तो कुछ भी नहीं मिल सकता। देखता हूँ, तुम दोनों भूखे हो।"
मंजु ने कहा-"मेरे साथ थोड़ा भोजन है, उससे हम तीनों का आधार हो जायगा।" उसने पोटली खोली। तीनों ने थोड़ा-थोड़ा खाकर पानी पिया। भोजन करने से दिवोदास में कुछ शक्ति आई। वह एक पत्थर के सहारे बैठ गया। चरवाहे ने कहा-"थोड़ी आग जलानी होगी, नहीं तो वन पशु का भय है। मैं ईधन लाता हूँ।" और वह उठकर चला गया।
मंजु ने उसके गले में बाँहे डालकर कहा-"अब तुम तनिक हँस दी।"
"क्या मैं फिर कभी हँस भी सकूंगा?"
"हम सदैव हँसेंगे, गाएँगे, मौज करेंगे।" और वह दिवोदास से लिपट गई। दिवोदास ने कहा-"प्यारी, तुम्हारी इस स्नेह दान ने मेरे बुझते हुए जीवन-दीपक को बुझने से बचा लिया। और तुम्हारी मधुर वाणी ने मेरे सूखे हुए जीवन की हरा-भरा कर दिया।" उसने उसे अपने बाहुपाश में कसकर अगणित चुम्बन ले डाले।
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