अतिरिक्त >> देवांगना देवांगनाआचार्य चतुरसेन
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आस्था और प्रेम का धार्मिक कट्टरता और घृणा पर विजय का एक रोचक उपन्यास...
सिद्धेश्वर का कोप
सिद्धेश्वर क्रोधपूर्ण मुद्रा में अपने गुप्त कक्ष में बैठे थे। इसी समय माधव ने किया। सम्मुख आते ही सिद्धेश्वर ने कहा-"तुम्हें मालूम है देवी सुनयना, कि मंजु भाग गई है?"
"तो क्या हुआ, मन्दिर में अभी बहुत पापिष्ठा हैं?"
"परन्तु क्या तुमने उसके भागने में सहायता दी है?"
"दी, तो फिर?"
"बड़ी सुन्दर बात है। जिसे राजरानी पद से च्युत कर विधवा और पतिता देवदासी बनाया-जिसकी बच्ची को पतित जीवन व्यतीत करने के लिए बाध्य किया और जिसे वासना की सामग्री बनाना चाहते थे-उसी को अब प्राणदण्ड भी दो।"
“चुप रहो सुनयना देवी!"
"क्यों चुप रहूँ? मैं ढोल पीटकर संसार को बताऊँगी कि मैं कौन हूँ, और तुमने मेरे साथ किया है!"
"तुम जो चाहो कही। कौन तुम पर विश्वास करेगा?"
सुनयना ने चोली से एक छोटी-सी वस्तु निकालकर उसे दिखाई और कहा, "इसे तो तुम पहचानते ही सिद्धेश्वर, जानते ही, इसमें किसका खून लगा है? इसे देखकर तो लोग विश्वास कर लेंगे?"
उन वस्तु को देखकर सिद्धेश्वर भयभीत हुआ। उसने कहा : "देवी सुनयना, इस प्रकार आपस में लड़ने-झगड़ने से क्या लाभ होगा! तुम मुझे उस खजाने का शेष आधा बीजक दे दो, मैं तुम दोनों को मुक्त कर दूँगा-बस।"
"प्राण रहते यह कभी नहीं होगा।"
"तो तुम्होर प्राण रहने ही न पावेंगे।"
"जिसने प्राण दिया है-वही उसकी रक्षा भी करेगा, तुम जैसे श्रृंगालों से मैं नहीं डरती।"
"मैंने उसे पकड़ने के लिए सैनिक चर भेजे हैं। वह जहाँ होगी-वहाँ से पकड़ ली जायेगी और मैं तेरे सम्मुख ही उसे अपनी अंकशायिनी बनाऊँगा।"
सिद्धेश्वर ने आपे से बाहर होकर कहा-"माधव, ले जा इस सर्पिणी की और डाल दे अंधकूप में।"
माधव उसे लेकर चला गया। कुछ देर तक सिद्धेश्वर भूखे व्याघ्र की भाँति अपने कक्ष में टहलता रहा। फिर उसने बड़ी सावधानी से एक ताली अपनी जटा से निकाल लोहे की सन्दूक खोली और उसमें से एक ताम्र-पत्र निकालकर उसे ध्यान से देखा तथा फलक पर लकीरें खींचता रहा। कभी-कभी उसके होंठ हिल जाते और भृकुटि संकुचित हो जाती। परन्तु वह फिर उसे ध्यान से देखने लगता।
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