अतिरिक्त >> देवांगना देवांगनाआचार्य चतुरसेन
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आस्था और प्रेम का धार्मिक कट्टरता और घृणा पर विजय का एक रोचक उपन्यास...
दिवोदास ने साहस करके मंजु को नीचे पृथ्वी पर उतार दिया और शंकित दृष्टि से कापालिक को देखने लगा।
कापालिक ने कहा- "कस्त्वं?"
"शरणागत?"
"अक्षता सा?"
इसी बीच मंजु की मूर्च्छा जागी। उसने देखा-कापालिक भयानक आँखों से उसी की ओर देख रहा है। वह चीख मारकर दिवोदास से लिपट गई।
कापालिक ने अट्टहास करके कहा-"माभै: बाले!" और फिर पुकारा : "शारूं गरव, शारं गरव?"
एक नंग-धड़ग, काला बलिष्ठ युवक लंगोटी कसे, गले में जनेऊ पहने, सिर मुड़ा हुआ, हाथ में भारी खड्ग लिए आ खड़ा हुआ। उसने सिर झुकाकर कहा : "आज्ञा प्रभु।’’
"इन्हें महामाया के पास ले जाकर प्रसाद दे, हम मन्त्र सिद्ध करके आते हैं।" शारं गरव ने खोखली वाणी से कहा-"चलो।" दिवोदास चुपचाप उसके पीछे-पीछे चल दिया! मंजु उससे चिपककर साथ-साथ चली।
मन्दिर बहुत जीर्ण और गन्दा था। उसमें विशालाकार महामाया की काले पत्थर की नग्न मूर्ति थी। जो महादेव के शव पर खड़ी थी। हाथ में खांडा, लाल जीभ बाहर निकली थी। आठों भुजाओं में शस्त्र, गले में मुण्डमाल सम्मुख पात्रों में रक्त पुष्प तथा मद्य से भरे घड़े धरे थे। एक पात्र में रक्त भरा था। सामने बलिदान का खम्भा था। पास ही एक खांडा भी रक्खा था।
दोनों ने देखा, वहाँ शारं गरव के समान ही चार और दैत्य उसी वेश में खड़े हैं। मूर्ति के सम्मुख पहुँच शारं गरव ने कर्कश। स्वर में कहा-"अरे मूढ़! महामाया की प्रणिपात कर।"
दिवोदास ने देवी को प्रणाम किया। मंजु ने भी वैसा ही किया। एक यमदूत ने तब बड़ा-सा पात्र दिवोदास के होंठों से लगाते हुए कहा-"पी जा अधर्मी, महामाया का प्रसाद है।"
"मैं मद्य नहीं पीता।"
"अरे अधर्मी, यह मद्य नहीं है, देवी का प्रसाद है, पी।" दो यमदूतों ने जबर्दस्ती वह सारा मद्य दिवोदास के पेट में उड़ेल दिया। भय से अभिभूत ही मंजु ने भी मद्य पी ली। तब उन यमदूतों ने उन दोनों को बलियूथ से कसकर बाँध दिया। फिर बड़बड़ाकर मन्त्र पाठ करने लगे।
मंजू ने लड़खड़ाती वाणी से कहा-‘प्यारे, मेरे कारण तुम्हें यह दिन देखना पडा।"
"प्यारी, इस प्रकार मरने में मुझे कोई दुख नहीं।"
"परन्तु स्वामी, हम फिर मिलेंगे।"
"जन्म-जन्म में हम मिलेंगे, प्रिये-प्राणाधिके।"
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