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देवांगना

आचार्य चतुरसेन

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :128
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 9009
आईएसबीएन :9789350642702

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आस्था और प्रेम का धार्मिक कट्टरता और घृणा पर विजय का एक रोचक उपन्यास...

 

कापालिक के चंगुल में


गहन अँधेरी रता में मंजु और दिवोदास ने निविड़ वन में प्रवेश किया। मंजु ने कहा-"माँ का कहना है कि वह जो सुदूर क्षितिज में दो पर्वतों के श्रृंग परस्पर निकट ही उस गुप्त कोष का मुख द्वार है। इसलिए हमें उत्तराभिमुख चलते जाना चाहिये। विन्ध्य-गुहा को पार करते ही हम कौशाम्बी-कानन में प्रवेश कर जाएँगे।"

"परन्तु प्रिये, यह तो बड़ा ही दुर्गम वन है, रात बहुत अँधेरी है। हाथ को हाथ नहीं सूझता। बादल मैंडरा रहे हैं। एक भी तारा दृष्टिगोचर नहीं होता। वर्षा होने लगी तो राह चलना एकबारगी ही असम्भव हो जायेगा।"

"चाहे जो भी ही प्रिय, हमें चलते ही जाना होगा। जानते हो, उस बाघ ने अपने शिकारी कुते हमारे लिए अवश्य छोड़े होंगे। चले जाने के सिवा और किसी तरह निस्तार नहीं है।"

"यह तो ठीक है, पर मुझे केवल तुम्हारी चिन्ता है प्यारी, तुम्हारे कोमल पाद-पद्म तो कल ही क्षत-विक्षत हो चुके थे। तुम कैसे चल सकोगी?"

"प्यारे! तुम्हारे साथ रहने से तो शक्ति और साहस का हृदय में संचार होता है। तुम चले चलो।"

और वे दोनों निविड़ दुर्गम गहन वन में घुसते चले गये। घनघोर वर्षा होने लगी। बिजली चमकने लगी। वन-पशु इधर-उधर भागने लगे, आँधी से बड़े-बड़े वृक्ष उखड़कर गिरने लगे। कैंटीली झाड़ी में फंसकर दोनों के वस्त्र फटकर चिथड़े-चिथड़े हो गये। शरीर क्षतविक्षत हो गया। फिर भी वे दोनों एक-दूसरे को सहारा दिए चलते चले गए।

अन्ततः मंजु गिर पड़ी। उसने कहा-"अब नहीं चल सकती।"

"थोड़ा और प्रिये, वह देखो उस उपत्यका में आग जल रही है। वहाँ मनुष्य होंगे। आश्रय मिलेगा।"

मंजु साहस करके उठी, परन्तु लड़खड़ाकर गिर पड़ी। उसने असहाय दृष्टि से दिवोदास की देखा।

दिवोदास ने हाथ की तलवार मंजु के हाथ में देकर कहा-"इसे मजबूती से पकड़े रहना प्रिये," और उसे उठाकर पीठ पर लाद ले चला।

प्रकाश धीरे-धीरे निकट आने लगा। निकट आकर देखा-एक जीर्ण कुटी है। कुटी के बाहर मनुष्य मूर्ति भी घूमती दीख पड़ी। परन्तु और निकट आकर जो देखा तो भय से दिवोदास का रक्त जम गया। मंजु चीख मारकर मूच्छित हो गई।

उन्होंने देखा-कुटी के बाहर छप्पर के नीचे एक कापालिक मुर्दे की छाती पर पद्मासन में बैठा है। उसकी बड़ी-बड़ी भयानक लाल-लाल आँखें हैं। उसका रंग कोयले के समान काला है। उसकी जटाएँ और दाढ़ी लम्बी लटक रही है तथा धूल-मिट्टी से भरी है। कमर में एक व्याघ्र चर्म बँधा है। गले में मुण्डमाला है। पढ़-पढ़कर माँस की आहुति डाल रहा है। माँस के अग्नि में गिरने से लाल-पीली लपटें उठती हैं।

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