अतिरिक्त >> देवांगना देवांगनाआचार्य चतुरसेन
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आस्था और प्रेम का धार्मिक कट्टरता और घृणा पर विजय का एक रोचक उपन्यास...
दोनों को दो भिन्न-भिन्न दिशाओं में खींचकर ले जाया गया। सुखदास और वृद्ध ग्वाला रह गए। सुखदास ने कहा-"मैं भी भिक्षु हूँ, मेरा धर्मानुशासन आचार्य करेंगे।"
आचार्य ने कहा-"इन दोनों अपराधियों को भी महाराज मेरे ही सुपुर्द कर दें।"
काशिराज ने स्वीकार किया। आचार्य उठकर चल दिए। आवास पर आने पर सुखानन्द ने कहा-"मैं एक आवश्यक निवेदन एकान्त में करना चाहता हूँ।"
आचार्य ने एकान्त में ले जाकर कहा-"क्या करना चाहते हो तुम?"
"आचार्य, मैं निरपराध हूँ, और यह वृद्ध भी।"
"तू निरपराध कैसे है?"
"आचार्य के विरुद्ध सिद्धेश्वर महाराज ने जो षड्यन्त्र रचा था-मैं उसी की छानबीन कर रहा था, आचार्य? मुझे अपना कार्य करने दीजिए।"
"कौन-सा कार्य।"
"आचार्य उस देवदासी को यहाँ से ले जाना चाहते हैं न!"
"चाहता तो हूँ।"
"पर सिद्धेश्वर की उस पर कुदृष्टि है।"
"यह मैं देख चुका हूँ।"
"परन्तु मैं उसे यहाँ से उड़ा ले चलूँगा।"
"किस प्रकार ?"
"यह मुझ पर छोड़ दीजिए आचार्य।"
"किन्तु धर्मानुज जो है।"
"वह तो आपके अधीन है आचार्य, वह कर क्या सकता है!"
"और यह बूढ़ा मूर्ख कौन है?"
"एक गँवार है आचार्य, लोभ-लालच देकर अपनी सहायता के लिए रख लिया है।"
"तो तुम दोनों को मुक्त करता हूँ, कार्य करो।"
"किन्तु आचार्य, केवल मुक्ति ही नहीं। स्वर्ण भी चाहिए।"
"स्वर्ण भी ले भद्र, पर उस दासी को निकाल ले चल।"
"यह कौन-सी बड़ी बात है। कह दूँगा, मैं उस भिक्षु का सन्देशवाहक हूँ, उसी ने तुझे बुलाया है। उसने मुझे उसके साथ देखा भी है।"
"इसके बाद?"
"इसके बाद जैसा आचार्य चाहें।"
"तो भद्र, तू चेष्टा कर।"
"आचार्य, मुझे इस मूर्ख धर्मानुज से भी मिलते रहने की अनुमति दी जाय।"
"किसलिए?"
"उसे बहका-फुसलाकर एक पत्र उस दासी के नाम लिखा सकूं तो कार्य जल्द सिद्ध होगा।"
"तो तुझे स्वतन्त्रता है।"
"आचार्य, फिर तो काम सिद्ध हुआ रखा है।" वह सिर हिलाता हुआ वृद्ध चरवाहे के साथ एक ओर को रवाना हो गया।
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