अतिरिक्त >> देवांगना देवांगनाआचार्य चतुरसेन
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आस्था और प्रेम का धार्मिक कट्टरता और घृणा पर विजय का एक रोचक उपन्यास...
प्रसव
कई मास तक काशिराज का यज्ञानुष्ठान चलता रहा। इस बीच मंजु और देवी सुनयना अन्धकूप में पड़ी रहीं। उन्हें बाहर निकालने का सुयोग सुखदास को नहीं मिला। परन्तु ज्यों ही यज्ञ समाप्त हुआ तथा आचार्य वज्रसिद्धि काशी से विदा हुए, सुखदास की युक्ति और उद्योग से मंजु और देवी सुनयना अन्धकूप से मुक्त होकर भाग निकलीं। परन्तु इस विपत्ति में एक दूसरी विपति आ खड़ी हुई। मंजु को प्रसव वेदना होने लगी। देवी सुनयना ने सुखदास से कहा-"अब तो कहीं आश्रय खोजना होगा। चलना सम्भव ही नहीं है।" निरुपाय मंजु को एक वृक्ष के नीचे आश्रय दे सुखदास और वृद्ध चरवाहा दोनों ही आहार और आश्रय की खोज में निकले।
परन्तु इस बीच ही में मंजु शिशु-प्रसव करके मूर्च्छित हो गई। यह दशा देख देवी सुनयना घबरा गई। उन्होंने साहस करके शिशु की परिचर्या की तथा मंजु की जो भी सम्भव सुश्रुषा हो सकती थी, करने लगी। मंजु की दशा बहुत खराब हो रही थी। थकान, भूख और शोक से वह पले ही जर्जर हो चुकी थी, अब इतना रक्त निकल जाने से उसके मुँह पर जीवन का चिह्न ही न रहा। सुनयना यह देख डर गई। उसने यत्न से उसकी मूच्छ दूर की। होश में आकर मंजु एकटक माँ का मुँह देखने लगी। फिर बोली-"माँ, अब उनके दर्शन तो न हो सकेंगे?"
"क्यों नहीं बेटी!"
"उन्होंने कहा था-"जब पुत्र का जन्म होगा, मैं आऊँगा।' "
कुछ रुककर पुनः बोली-"पर उनके आने के पहले तो हमीं वहाँ चल रहे है।"
"नहीं जानती माँ, मैं कहाँ जा रही हूँ किन्तु मेरा एक अनुरोध रखो माँ।"
"कह बेटी।"
"यदि मेरी मृत्यु हो जाय, और वे न आयें तो, जैसे बने, बच्चे को उनके पास अवश्य पहुँचा देना। और यह सन्देश भी कि तुम्हारे आने की आशा में मंजु अब तक जीवित रही। तुम्हारे निराश प्रेम का फल तुम्हारे लिए छोड़ गई।"
"बेटी, इतना धीरज न छोड़ी।"
"माँ! कदाचित् यह अस्तगत सूर्य की स्वर्ण-किरण मेरी मुक्ति का सन्देश लाई है।"
"अरी बेटी, ऐसी अशुभ बात मत कहो, तुम फलो-फूली। और मैं इन आँखों से तुम्हें देखें। इसलिए न मैंने अब तक अपने जीवन का भार ढोया है।"
"माँ, मैं बहुत जी चुकी, बहुत फली-फूली, और मैंने संसार को अच्छी तरह देखभाल लिया। मेरा जीवन उस फूल की भाँति रहा, जो सूर्य की किरणों को छूकर खिल उठा, और उसी के तेज में झुलसकर सूख गया।"
सुनयना रोने लगी।
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