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देवांगना

आचार्य चतुरसेन

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :128
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 9009
आईएसबीएन :9789350642702

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आस्था और प्रेम का धार्मिक कट्टरता और घृणा पर विजय का एक रोचक उपन्यास...

मंजु ने कहा-"माँ, दुखी न हो, इस फूल की पंखुड़ियाँ झर जायेंगी, और झंझा वायु उन्हें उड़ाकर कहाँ की कहाँ ले जाएगी। आह! सूर्य आज भी अस्त ही गया। वे न आए, न आए। अन्धकार बढ़ा चला आ रहा है। यह जैसे मेरे जीवन पर पर्दा डाल देगा। कदाचित् मेरे जीवन-दीपक के बुझने का समय आ गया।" वह मूच्छित होकर निर्बल हो गई। सुनयना ने घबरा कर कहा-"मंजु, आँखें खोली बेटी, इस फूल से सुकुमार बच्चे को देखो।"

मंजु ने आँखें खोलकर टूटे-फूटे स्वर में कहा-"नहीं आए, इस अपने नन्हे को देखने भी नहीं आये! आह! कैसा प्यारा है नन्हा, आनन्द की स्थायी मूर्ति, माँ उसे मेरे और पास लाओ।"

"वह तो तुम्हारे पास ही है बेटी।"

"और पास, और पास, और, और..." वह बेसुध हो गई। फिर उसने आँख खोलकर बच्चे को देखकर कहा-"वैसी ही आँखें हैं, वैसे ही होंठ," उसने बच्चे का मुँह चूम लिया, और हृदय से लगा लिया।

इसके बाद ही उसकी आँखें पथरा गई। और चेहरा सफेद हो गया। श्वास की गति भी रुक गई। सुनयना देवी धाड़ मारकर रो उठीं। उन्होंने कहा-"आह, मेरी बेटी, तू तो बीच मार्ग में ही चली-मेरी सारी तपस्या विफल हो गई।"

परन्तु देवी सुनयना को इस विपत्काल में रोकर जी हलका करने का अवसर भी न मिला। उन्हें निकट ही अश्वारोहियों के आने का शब्द सुनाई दिया। अब वे क्या करें? उनका ध्यान बच्चे पर गया। उसे उठाकर उन्होंने अपनी छाती से लगा लिया। एक बार उन्होंने मंजु के निमीलित नेत्रों की ओर देखा। घोड़ों की पदध्वनि निकट आ रही थी।

उन्हें मंजु का अनुरोध याद आया और हृदय में साहस कर उन्होंने अपना संकल्प स्थिर किया।

उन्होंने कहा-"विदा बेटी तुझे मैं माता वसुन्धरा को सौंपती हूँ, और तेरा अनुरोध पालन करने जा रही हूँ।" उन्होंने वस्त्र से मंजु का मुँह ढाँप दिया और बालक को छाती से लगाकर एक ओर चलकर अन्धकार में विलीन हो गई।

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