अतिरिक्त >> देवांगना देवांगनाआचार्य चतुरसेन
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आस्था और प्रेम का धार्मिक कट्टरता और घृणा पर विजय का एक रोचक उपन्यास...
भिक्षुओं ने एक बार फिर शोर मचाया। वे रथ पर टूट पड़े। दिवोदास ने रोकना चाहा-परन्तु वह धक्का खाकर गिर गया। सहसा महाराज गोविन्दपाल देव ने खड़े होकर कहा-"जो जहाँ है, वहीं खड़ा रहे।"
महाराज की घोषणा सुनते ही एक बार स्तब्धता छा गई। महाराज ने सेनापति की आज्ञा दी-"सेनापति, इन उन्मत्त भिक्षुओं को घेर लो।"
क्षण-भर ही में सेना ने समस्त भिक्षु मण्डली को तलवारों की छाया में ले लिया। आतंकित होकर भिक्षु मन्त्रपाठ भूल गए। जनता भयभीत हो भागने की जुगत सोचने लगी।
वज्रसिद्धि ने कुद्ध होकर कहा-"महाराज, यह आप अधर्म कर रहे है।"
महाराज ने कहा-"मैं यह जानना चाहता हूँ। आचार्य, यह कैसा धर्म-कार्य हो रहा है?"
"देव, आप धर्म व्यवस्था में बाधा मत डालिए।"
"परन्तु मैं पूछता हूँ कि यह कैसी धर्म व्यवस्था है!"
"आप अपने गुरु का अपमान कर रहे हैं।" विरुद्ध षड्यन्त्र नहीं किया? श्रेष्ठिराज धनंजय के धन को हड़पने के लिए उनके पुत्र को अनिच्छा से भिक्षु बनाकर उसे गुप्त यन्त्रणाएँ नहीं दी हैं? क्या आप लिच्छविराज के गुप्त धन को पाने का षड्यन्त्र नहीं रच रहे हैं?"
"देव, इन अपमानजनक प्रश्नों का मैं उत्तर नहीं दूँगा।"
"तो आचार्य वज्रसिद्धि, इन आरोपों के आधार पर मैं आपको आचार्य पद से च्युत करता हूँ और बन्दी करता हूँ।" उन्होंने सेनापति से ललकार कहा : "सेनापति इन्द्रसेन, वज़्राचार्य और इनके सब साथियों को अपनी रक्षा में ले लो। तथा संघाराम और उसके कोष पर राज्य का पहरा बैठा दी। तुम्हारे काम में जो भी विघ्न डाले उसे बिना विलम्ब खड्ग से चार टुकड़े करके संघाराम के चारों द्वारों पर फेंक दो!" सेनापति ने अपनी नंगी तलवार आचार्य के कन्धे पर रखी।
वज्रसिद्धि ने कहा-"भिक्षुओ, यह राजा पतित हो गया है। इसे अभी मार डालो।"
भिक्षुओं में क्षोभ उत्पन्न हुआ, सैनिक शस्त्र लेकर आगे बढ़े।
अब श्रीज्ञान ने दोनों हाथ ऊँचे करके कहा-"सावधान, भिक्षुओ! यह श्रीज्ञान मित्र तुम्हारे सम्मुख खड़ा है। तुमने तथागत के वचनों का अनादर किया है। बन्धु प्रेम के स्थान पर रक्तपात, अहिंसा के स्थान पर माँसाहार, संयम के स्थान पर व्यभिचार और त्याग के स्थान पर लोभ ग्रहण किया है जिससे तुम्हारे चारों व्रत भंग हो गये हैं। तुमने भिक्षु वेश को कलंकित किया है, और तथागत के पवित्र नाम को कलुषित किया है। मैं तुम्हें आदेश देता हूँ कि अपने आचरणों को सुधारो, या भिक्षुवेश त्याग दो।"
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