अतिरिक्त >> देवांगना देवांगनाआचार्य चतुरसेन
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आस्था और प्रेम का धार्मिक कट्टरता और घृणा पर विजय का एक रोचक उपन्यास...
सहस्र-सहस्र भिक्षु श्रीज्ञान के सम्मुख घुटनों के बल बैठ गए। महाराज ने कहा-"भिक्षुओ, तुम्हारे अनाचार की बहुत बातें मैंने सुनी हैं। प्रजा तुम्हारे अत्याचारों से तंग है। तुम्हारे गुरु घण्टाल का भण्डाफोड़ हो गया है। मैं चाहता हूँ, भगवान् श्रीज्ञान के आदेश का पालन करो। अपने-अपने स्थान को लौट जाओ।"
भिक्षुओं ने एक स्वर से महाराज और ज्ञानश्री मित्र का जय-जयकार किया।
महाराज ने कहा-"श्रेष्ठि धनंजय, आओ अपने पुत्र-पौत्र और पुत्र-वधू को आशीवाद दो।"
धनंजय दौड़कर पुत्र से लिपट गया। दिवोदास ने पिता के चरणों में गिरकर अभिवादन किया। मंजु ने भी सबको प्रणाम किया और बच्चे को श्वसुर की गोद में दे दिया।
महाराज ने कहा-"श्रेष्ठिराज, यह सौभाग्य तुम्हें भगवान् श्रीज्ञान की कृपा से मिला है। उन्होंने मंजुघोषा और उसके पुत्र की प्राण रक्षा की। और बड़े कौशल से मूर्ति के स्थान पर उसे प्रकट किया।"
सुनयना ने करबद्ध होकर कहा-"तो भगवान्, आप ही मेरे बच्चे के चोर हैं?"
"यह कार्य भी मुझ वीतराग पुरुष को करना पड़ा। जब मंजु को मैंने जंगल में असहाय वृक्ष के नीचे मूर्च्छितावस्था में पड़ा देखा, तो उसे मैं अपने आश्रम में उठा लाया। उपचार से वह स्वस्थ हुई तो बच्चे के लिए उसने बहुत आफत मचाई। मैं जानता था कि तुम राजी से बच्चा मुझे न दोगी। मंजु का जीवित रहना मैं तुम पर प्रकट करना नहीं चाहता था-इसी से चौर्यकार्य मुझे करना पड़ा। अब बुद्ध शरणं।"
"भगवान्, मैं तो ऐसी अन्धी हो गई कि पुत्री को अरक्षित छोड़कर भाग निकली, परन्तु मुझे बालक की रक्षा का विचार था।"
"यह सब भवितव्य था जो अकस्मात् हो गया।"
"किन्तु भगवन्, यहाँ मूर्ति के स्थान पर मंजु कैसे आ गई?"
"यह हमसे पूछिए," सुखदास ने आगे बढ़कर कहा-"हम लोग जब स्थान आदि की सुव्यवस्था करके वृक्ष के निकट पहुँचे, तो वहाँ कोई न था। इससे हम बहुत व्याकुल हुए। सारा जंगल छान मारा। तब भगवान् के हमें दर्शन हुए। और जब मंजु को हमारी देख-रेख में छोड़कर भगवान् बच्चा चुराने के लिए गये, तो हमने मिलकर यह योजना बना ली। फिर तो मूर्ति को अपने स्थान से हटाकर वहाँ मंजु को बैठा देना आसान था। परन्तु चमत्कार खूब हुआ!"
यह कहकर सुखदास हँसने लगा। सभी लोग हँस दिए।
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