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देवांगना

आचार्य चतुरसेन

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :128
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 9009
आईएसबीएन :9789350642702

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आस्था और प्रेम का धार्मिक कट्टरता और घृणा पर विजय का एक रोचक उपन्यास...

सुखदास ने वृद्ध ग्वाले की ओर संकेत करके कहा-"इन महात्मा ने प्राणपण से मंजु की सेवा करके प्राण बचाये। हमारी योजना न सफल होती यदि यह मदद न करते।"

ग्वाले ने चुपचाप सबको हाथ जोड़ दिए। आचार्य श्रीज्ञान ने कहा-"यह सब विधि का विधान है। लिच्छवि-राजमहिषी?"

राजा ने अकचकाकर कहा-"यह आपने क्या शब्द कहा! लिच्छवि राजमहिषी कौन!"

"महाराज, यह देवी सुनयना लिच्छविराज श्री नृसिंहदेव की पट्टराजमहिषी कीर्तिदेवी हैं, जिन्हें काशिराज ने छल से मारकर उनके राज्य को विध्वंस किया था। मंजुघोषा इन्हीं की पुत्री हैं।"

महाराज ने कहा-"महारानी, इस राज्य में मैं आपका स्वागत करता हूँ। और राजकुमारी, आपका भी तथा कुमार को मैं वैशाली का राजा घोषित करता हूँ, और उनके लिए यह तलवार अर्पित करता हूँ जो शीघ्र काशिराज से उनका बदला लेगी।"

रानी ने कहा-"हम दोनों-माता पुत्री-कृतार्थ हुई। महाराज, आपकी जय हो। अब इस शुभ अवसर पर यह तुच्छ भेंट मैं दिवोदास को अर्पण करती हूँ।"

उसने अपने कण्ठ से एक तावीज निकालकर दिवोदास के हाथ में देते हुए कहा-"इसमें उस गुप्त रत्नकोष का बीजक है, जिसका धन सात करोड़ स्वर्ण मुद्रा है।"

"पुत्र, मुझ अभागिन विधवा का यह तुच्छ दहेज स्वीकार करो।"

श्रेष्ठि धनंजय ने आगे बढ़कर कहा-"महारानी, आपने मुझे और मेरे पुत्र को धन्य कर दिया।"

आचार्य श्रीज्ञान ने हाथ उठाकर कहा-"आप सबका कल्याण हो। आज से मैं आचार्य शाक्य श्रीभद्र को इस महाविहार का कुलपति नियुक्त करता हूँ।" महाराज ने स्वीकार किया। और सबने आचार्य को प्रणाम किया और अपने गन्तव्य स्थान की ओर चले गए।

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