अतिरिक्त >> बड़ी बेगम बड़ी बेगमआचार्य चतुरसेन
|
6 पाठकों को प्रिय 174 पाठक हैं |
बड़ी बेगम...
कुत्तों का भूँकना सुनकर एक पहाड़ी नौकर भीतर से निकला। मिचमिची आँखों से उसने अब्दुल्ला की ओर देखा। फिर उसने जरा लापरवाही से कहा, "क्या है, किसे देखते हो, क्यों घुसे चले जा रहे हो?”
"भई, मैं चौधरी से मिलने आया हूँ, चौधरी से कहो-अब्दुल्ला आया है!”
"‘यह किनकी कोठी है भाई? चौधरी यहीं तो चौधरी दलमोड़...।”
"अरे जाओ, यह हमारे साहब की कोठी है। देखेंगे तो बिगड़ेंगे। जाओ, बाहर जाओ, भीतर आने का हुक्म नहीं है!”
वह अवज्ञा की दृष्टि उसपर डालता हुआ भीतर घुस गया। अब्दुल्ला खड़ा-खड़ा इधर-उधर देखने लगा। दोनों भेड़िये कुत्तों पर उसकी नज़र गयी। वे उसे देखकर अब भी भोंक रहे थे।
एक सुवसना सुन्दरी भीतर से निकली। शहर में ऐसी हिन्दुस्तानी मेम साहब उसने बहुत देखी थीं। गोरा-चिट्टा रंग, महीन रेशमी साड़ी, जिसमें से पेट और नंगी कमर झाँक रही थी, लिपस्टिक से रंगे लाल-लाल होंठ। साथ में दो बच्चे गुलाब के फूल की भाँति सुन्दर और सजे हुए।
सुन्दरी ने कहा, ‘तुम कौन हो और यहाँ क्यों खड़े हो?”
"मैं चौधरी दलमोड़सिंह से मिलने आया हूँ।” ‘
"उनसे मिलना है तो स्वर्ग में जाकर मिलो।”
"या खुदा, तो क्या चौधरी....” अब्दुल्ला होंठों-ही-होंठों में बड़बड़ाया।
सूरज छिप गया था। अन्धेरे ने गाँव को और उस भव्य कोठी को तथा अब्दुल्ला के हृदय को भी ग्रस लिया था। उसने अटकते हुए हकलाकर कहा,
"परदेशी आदमी हूँ, आज रात यहाँ काटना चाहता हूँ।”
"यह होटल या सराय नहीं है। चले जाओ यहाँ से!”
अब्दुल्ला ने एक बार फिर उस नीम के पेड़ को ऊपर से नीचे तक देखा जो अब केवल अन्धकार का ढेर-सा हो रहा था। वह लड़खड़ाते पैरों से वहाँ से चल दिया।
महिला ने इस तरह उसे जाते देखकर कहा : "कोई शराबी था!”
|