अतिरिक्त >> बड़ी बेगम बड़ी बेगमआचार्य चतुरसेन
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बड़ी बेगम...
वह जा रहा था गोरेगाँव, अपने चिर-परिचित टेढ़े-मेढ़े मार्ग पर उत्साह और भावों से भरा हुआ। चारों ओर के दृश्यों, गाँवों और चिहों को देखता हुआ। तीन-चार कोस का वह कच्चा मार्ग आज उसे बहुत लम्बा लग रहा था। उसे ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे उसे उस मार्ग पर चलते हुए तीस बरस बीत रहे हैं। ज्यों-ज्यों उसके कदम आगे बढ़ रहे थे, अपने लंगोटिया यार दलमोड़ से मिलने की अधीरता बढ़ती ही जाती थी। उसे याद था-दलमोड़ चौधरी का एक बेटा था, बहुत बार उसने उसे अपनी छाती पर उछाला था, बहुत बार उसने कहा था, "चौधरी, लाट साहब बनेगा यह लड़का एक दिन! तब तुम ज़रा सिफारिश करके मेरी नौकरी भी लगवा देना। मैं भैया का अर्दली बनूँगा।” इसपर दलमोड़ हँस देता था। अब तो वह लड़का बड़ा हो गया होगा, बाल-बच्चेदार हो गया होगा, उसने कुछ मिठाई खरीदकर उसके लिए बांध ली थी।
वह जा रहा था, तीस बरस बाद, अपने गाँव, गोरेगाँव। अब गाँव में उसका घर कहाँ है? बस, एक चौधरी दलमोड़ ही है। आज रात-भर घुटेगी उसकी चचा दलमोड़ से। बराबर खाट बिछाकर रात-भर सोने न दूँगा; अपनी कहूँगा, उसकी सुनूँगा। चिलम-तम्बाखू पियेंगे दोनों मजा रहेगा! वह आ गया बड़ का पेड़, वही है कुआँ। अब्दुल्ला ज़रा वहाँ ठिठका। इस समय वहाँ सुनसान था। उसने पश्चिम में डूबते हुए सूरज पर नज़र डाली, अस्त होते हुए सूरज की पीली-पीली धूप उस पुराने बरगद के पेड़ की घनी छांह में कुएँ पर गिर रही थी। वह सोचने लगा, 'अब वह कुआँ भी मेरी तरह बूढ़ा हो गया। वे सब अल्हड़ छोरियाँ, जिनकी धमा-चौकड़ी कुएँ पर रहती थी, अब बूढ़ी हो चुकी होंगी, अपने बाल-बच्चों में, अपनी गिरस्ती में फंसी होंगी। हुरदंगी लड़कियों का ब्याह हो गया होगा, वे सब अपनी ससुराल चली गयी होंगी। इसीसे पनघट सूना हो रहा है।'
उसका मन कुछ सूना-सूना हो गया। सामने गोरेगाँव है। वह दीख रहा है नीम का पेड़, जो दलमोड़ के अहाते में है। वह तेजी से आगे बढ़ा। लेकिन यह क्या? यह दुमंजिली पक्की कोठी किसकी है? यहाँ का तो नक्शा ही बदला हुआ है। हाँ, हाँ, वही नीम का पेड़ है! वह तनिक आगे बढ़ा। उसने देखा-नीम का पेड़ तो वही है। लेकिन उसके नीचे जो दो खुन्नी भैसें बँधी रहती थीं, वे वहाँ नहीं हैं। अब नीम के चौगिर्द पक्का चबूतरा बन गया है, चबूतरे पर रेत बिछा है। रेत पर दो अलसेशियन कुते बन्धे हैं, एकदम भेड़िये जैसे भयानक। उसे देखकर कुत्ते मूंकने लगे। अब्दुल्ला ज़रा ठिठककर इधर-उधर देखने लगा। लम्बा-चौड़ा अहाता तो वही था, मगर दलमोड़ के छकड़िये का पता न था। वहाँ तो एक आलीशान पक्की कोठी खड़ी थी।
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