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बड़ी बेगम

आचार्य चतुरसेन

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2015
पृष्ठ :175
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 9021
आईएसबीएन :9789350643334

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बड़ी बेगम...

हुक्म सुनकर अब्दुल्ला ने साहब की सलाम किया। 'बहुत अच्छा हुजूर!' कहकर खुशी-खुशी कचहरी से निकलकर वह सहन में आया। बड़ी सख्त गर्मी थी। टिटार दुपहरी। कभी-कभी लू के झोंके भी आ रहे थे। पर अब्दुल्ला का इधर ध्यान नहीं था। कचहरी के सहन में एक बहुत पुराना इमली का पेड़ था। उसकी छांह में तने से पीठ लगाये अबदुल्ला बैठा था। वह बहुत खुश था। उसकी आँखों में एक चमक थी। उसने आकाश पर नजर डाली और उसके होंठों से निकला, "अलहम्दुलिल्लहा या पाक परवर-दिगार, तूने आज मेरी मुराद पूरी की। तेरी रहमत बड़ी है। जिस दिन से बदलकर आया हूँ कितनी बार छुट्टी माँगी, पर न मिली। लेकिन आज हुक्मन जा रहा हूँ!” तीस साल बाद, ज़रा सोचिए तो, पूरे तीस साल बाद।

युग बीत गया। नयी दुनिया पुरानी हो गयी। जवानी झुक गयी, स्याही पर सफेदी फैल गयी, जीवन की दुपहरी ढल गयी।

कुल दो-ढाई घण्टे का ही रास्ता है! अब्दुल्ला के मानस-नेत्रों में वह टेढ़ा-मेढ़ा पतला-कच्चा रास्ता जैसे सामने आ खड़ा हुआ। रास्ते में आने वाले गाँव, उनके छप्परों से उठता हुआ धुआँ, घी पकने की सोंधी महक, रास्ते के किनारे इठलाता हुआ वह पुराना बरगद का पेड़ और पक्का कुआँ-जहाँ गाँव की लड़कियाँ और बहुएँ पानी भरने आती हैं अपना अलबेला यौवन बिखरेती हुई, बेसुध, भोली और अल्हड़। कोई हँस रही है, कोई साथिन को टहोका मारकर चुहल कर रही है। किसीने कुएँ में रस्सी फांसी, किसीने घड़ा कमर से लगाया। कमर बलखाने लगी, हाय मेरी दैया!!

अब्दुल्ला की सोयी हुई जवानी जैसे जाग उठी। जीवन के प्रभात की ये स्मृतियाँ, जैसे उसके मन-मानस से निकल-निकलकर साकार हो उठीं। वह ठहाका मारकर हँस उठा, एक मीठी-सी हँसी, जैसे अभी-अभी किसी नयी-नवेली ने उस अल्हड़ छोकरे पर नैन का बान चलाया हो। एक दीर्घ नि:श्वास लेकर वह फिर विचार-सागर में गोते लगाने लगा, जैसे वह गोरेगाँव की बलखाती हुई पगडण्डी पर चढ़ा चला जा रहा है, अपनी भरी जवानी की चाल में गुनगुनाता हुआ। सूरज सिर पर चमक रहा है, रेत के टीले धूप में सोने के ढेर की भाँति चमक रहे हैं। वह छोटी-सी देहाती नदी, जी बरसात में गजब ढाती थी, बलखाती सांपिन की तरह खिसकी चली जा रही है। दूर-दूर तक फसलों से लदे खेत, और गाँव के पश्चिमी किनारे पर चौधरी दलमोड़ का लम्बा-चौड़ा अहाता और बिलकुल उससे सटा हुआ मकान, अगली तरफ उसकी छकड़िया। सामने वह खड़ा चौधरी दलमोड़ मजे का पक्का यार है! कितनी बार उसके साथ नदी में डुबकियाँ लगायी हैं, कितनी बार लाठी के हाथ निकाले, कितनी बार इन जंगलों में घूमे, कितनी बार उसी बरगद की छाया में पनघट की सैर की, जब उसका रोम-रोम जवान था, उमंगों से भरा हुआ। वाह यार दलमोड़सिंह, कहो कैसे हो? भई, बहुत दिनों में मिले।

एक बार अब्दुल्ला ने फिर अपने चारों ओर देखा। उसके होंठों पर मुस्कान फैल गयी। वह पेड़ के नीचे से उठा। अपनी कोठरी में गया, अपना झीला और डण्डा उठाया और चल दिया।

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