अतिरिक्त >> बड़ी बेगम बड़ी बेगमआचार्य चतुरसेन
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बड़ी बेगम...
बालिका सोच में पड़ गयी। भाभी के पास जाने का उसे साहस नहीं हो रहा था। कुछ सोचकर उसने कहा, "जाने भी दो अम्मा! बीमार आदमी की ती नीयत ऐसे ही बिगड़ जाती है। तुम दाल-भात बनाओ। भाभी खा लेगी, जरा नाराज़ हो जायेगी तो क्या?”
वृद्धा ने दाल-भात चढ़ा दिया। कुछ तरकारी भी बनायी और चटनी तैयार की। फुल्का तवे पर डालकर उसने कहा, "जा बेटी! बहू को बुला ला, खा जाये। ज़्यादा बैठने की मुझमें सामर्थ्य नहीं, सिर घूम रहा है और दर्द भी बहुत है।”
बालिका डरते-डरते फिर भाभी के विलास-भवन में गयी। उसका साहस कमरे के भीतर जाने का नहीं होता था। वह जानती थी कि भाभी का सख्त हुक्म है कि कोई कमरे के भीतर कदम न रखे, न दरवाज़ा खोले, सिर्फ बाहर से आवाज दे। बालिका ने धीरे से कहा, "चली भाभी, भोजन कर लो।”
बहू ने किताब रख दी और अलसायी हुई उठी और इठलाती हुई रसोई में आ बैठी। देखा, आसन पड़ा है और थाल परोसा हुआ रखा है, पर थाल में पूरियाँ नहीं हैं, दाल-भात है। उसने ज्वालामय नेत्रों से सास की ओर देखकर कहा, "किसने कहा था यह गोबर बनाने के लिए?”
वृद्धा ने धीमे स्वर से कहा, "जो कुछ भी बना है वह खा लो! इस समय घी घर में नहीं था। फिर तुम्हें ऐसी चीज़ पचती भी तो नहीं है; अभी बीमारी से उठी हो!’’
बहू ने गरजकर कहा, "घी नहीं था तो फूटे मुँह से कहा क्यों नहीं था? में क्या मर गयी थी? इस जले घर में क्या कुछ मिल सकता है?” उसने थाल में एक ठोकर मारी और सर्पिणी की भाँति फुफकार छोड़ती हुई अपनी विलास-शय्या पर जा पड़ी। वृद्धा और बालिका शून्य दृष्टि से एक-दूसरे को देखने लगे। उसका अर्थ यह था कि अब क्या होगा?
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