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बड़ी बेगम

आचार्य चतुरसेन

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2015
पृष्ठ :175
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 9021
आईएसबीएन :9789350643334

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बड़ी बेगम...

"यह गुड़िया यहाँ आयी कहाँ से?”

"कहीं से आयी, तुम्हें मतलब?”

"मतलब बहुत है! इस गुड़िया को मैं पहचानता हूँ।”

"तुम?’’

"हाँ, यही वह गुड़िया है! तुम्हारे पास कहाँ से आयी?”

"मेरे पास यह बहुत दिनों से है।”

"कितने दिनों से?’

"जब मैं बहुत नन्ही थी, तब से।”

"कहाँ से आयी?”

"एक बहुत अच्छे आदमी थे, उन्होंने दी थी।”

"तुम्हें दी थी-अमला? तुम क्या कह रही हो?”

"मुझे याद है, उन दिनों मैं बहुत छोटी थी!”

"तुम?’’

"हाँ, वह मुझे गोद में खिलाते थे। पेट पर उछालते थे। मेला दिखाने ले जाते थे। अन्धा घोड़ा बनते थे। वह बहुत अच्छे थे।”

"अमला!” उदय उन्मत हो रहे थे, उन्होंने कहा, "कहाँ की बात है यह?”

"मेरे नाना के घर की।”

"तुम्हारे पिता तो लाहौर में हैं?”

"पर मैं बचपन में नाना के घर बहुत दिन रही थी-वह इंजीनियर थे, और जगल में नहर पर रहते थे।”

"अमला, तुम मुझे पागल कर दोगी। तो वह अच्छे आदमी कौन थे?”

"यह याद नहीं! नाना के पास रहते थे। मेरे लिए मिठाई लाते थे। एक दिन वह यह गुड़िया लाये थे, फिर नहीं आये। मैं पिता जी के यहाँ चली आयी।”

"ओह, वह नन्ही-सी नटखट लड़की तुम ही अमला! तब तो तुम बहुत

ही हँसती थी।” उन्होंने अमला के दोनों हाथ पकड़कर उसे पास खींच लिया।

अमला अचरज-भरी दृष्टि से देखने लगी। उदय ने कहा, "उन अच्छे आदमी को तुमने कभी याद नहीं किया अमला?”

अमला कुछ-कुछ समझ गयी थी। वह आँखें फाड़-फाड़कर पति की आँखों में छिपी उस विस्मृत, चिर-परिचित दृष्टि को पहचानने की चेष्टा कर रही थी। उसने प्रकम्पित स्वर में कहा, "तो क्या सचमुच...”

"अमला, तुमने तो खूब ढूंढ लिया। मैं सोचता रहता था कि वह बालिका भी अब बड़ी हो गयी होगी, अपने घर-बार की होगी। सो तुम बड़ी हो गयीं। अपने घर-बार की हो गयीं। तुम्हारे खेलने को यह सजीव गुड़िया तुम्हें मिल गयी, सो तुमने अपनी बचपन की गुड़िया इसे दे डाली।”

दोनों चुपचाप कुछ देर अवसन्न खड़े रहे। तेरह वर्ष पूर्व की विस्मृत सी बातें वह खूब ध्यान से याद कर रहे थे। उदय सोच रहे थे-कैसी विचित्र बात है कि जिस बालिका को मैंने घुटनों पर खिलाया, वही अब मेरी अर्धांगिनी और जीवन-संगिनी है। अमला सोच रही थी-वाह! यह तो खूब रही! जब मैं नन्ही-सी बच्ची थी, तब यह इतने बड़े थे, अब मैं इनके बराबर हो गयी।

समय और परिस्थिति ने क्या घटना उपस्थित कर दी; दोनों सोचने लगे। दोनों की दृष्टि उस बालिका पर पड़ी, जो पालने में अंगूठा चूस रही थी। एक बार दोनों ने एक-दूसरे को देखा, और फिर हँस दिये।

इस बार फिर दोनों भली-भाँति एक हुए। न मालूम क्यों? समाज और धर्म के विधान, पति-पत्नी होने पर भी उन्हें उतना निकट न ला सके थे, जितना वे अब मधुर, किन्तु विस्मृत और असम बाल्य-स्मृति के कारण निकट आ गये।

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