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बड़ी बेगम

आचार्य चतुरसेन

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2015
पृष्ठ :175
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 9021
आईएसबीएन :9789350643334

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बड़ी बेगम...

 

सच्चा गहना

(आचार्य चतुरसेन की सबसे प्रथम कहानी, जो गृहलक्ष्मी मासिक पत्रिका में सन् 1917-18 में छपी)

शशिभूषण के पिता आसाम में एक बड़ी रेशम की कोठी के स्वामी थे। इनका लेन-देन चीन, जापान, यूरोप आदि देशों में सब जगह था। सैकड़ों मुनीम, कारिन्दे, गुमाश्ते, नौकर-चाकर इनके यहाँ रहा करते थे। लाखों का कारोबार था। रुपयों की छनछनाहट के मारे कान नहीं दिया जाता था। चारों तरफ कारबारी लोगों की दौड़-धूप से ऐसी धूमधाम रहती थी, मानो कोई विवाह-उत्सव हो। मिजाज भी उनका अमीरों का-सा था। सभी अमीर दिल के भी अमीर नहीं होते। दीन-दुखियों के लिए एक कौड़ी भी अपनी टेंट से देते इन कन्जूसों की नानी मरती है। शशि के पिता ऐसे नहीं थे। गरीब-मोहताज विधवाओं के वह ईश्वर थे। उनका ऐसे सुकर्म में किया गया दान लम्बी-लम्बी तारीफों के साथ अखबारों में नहीं छपता था और न ऐसी वाह-वाही लूटने को ही वे ऐसा करते थे। वह तो स्वभाव से ही दयालु और सज्जन थे। बात के ऐसे धनी थे कि एक बार जो मुँह से निकल गयी तो फिरने वाली नहीं है, चाहे इधर की दुनिया उधर हो जाए। शील उनमें कूट-कूटकर भरा था। बड़े मुनीम जी से लेकर साधारण चपरासी तक से वह एक-सा ही 'तुम' कहकर प्रेमपूर्वक सम्भाषण करते थे। इतने बड़े करोड़पति होने पर भी उनका जीवन सुख-शान्ति और सादगी में आदर्श था। अब शशि के पिता को मरे कोई ढाई साल हुए होंगे, पर तब से अब तक में, उनके कारबार में कुछ न कुछ उन्नति ही हुई है। इसका यही कारण है कि शशि बाबू भी गुणों में अपने पिता से किसी भाँति कम नहीं हैं। अपने पिता के ज़माने के नौकरों तक की शशि बाबू बुजुर्गों की तरह मानते हैं। सच तो यों है कि शशि को ऐसा दयालु पाकर, चाकर लोगों ने इन्हीं थोड़े दिनों में उनके पिता को भी भुला दिया।

एक बार कारबार के ही विषय में उन्हें दिल्ली जाना हुआ और उसी एक काम में इन्हें 12 लाख का मुनाफा हुआ। वहीं विदेशी कोठियों के भी तार मिले जिन सबमें उस बार लाभ ही लाभ की बात थी।

शशि बाबू अपनी स्त्री श्यामा को बड़ा प्यार करते थे। श्यामा को देवी जैसा रूप भी मिला था। उसका सुन्दर-स्वच्छ मुख देखकर गुलाब का भ्रम होता था। श्यामा जैसी सुन्दरी थी, वैसे ही शौकीन भी परले सिरे की थी। ईश्वर की दया से उसे कमी ही क्या थी? नयी-नयी साड़ी, बढ़िया-बढ़िया जेवर, बेशकीमती सामान श्यामा के इशारा करते ही शशि बाबू ला दिया करते थे। भोजन करके जब शशि लेट रहते और श्यामा को निकट पाकर अपने सुख-स्वप्न में डूब जाते, तो वह तन्मय हो जाते थे। श्यामा को पाकर शशि अपने की महाभाग्यवान समझते थे।

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