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बड़ी बेगम

आचार्य चतुरसेन

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2015
पृष्ठ :175
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 9021
आईएसबीएन :9789350643334

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बड़ी बेगम...

हाँ, तो जब शशि बाबू दिल्ली जाने लगे तो श्यामा ने हीरों का हार और मोतियों की एक माला लाने की फरमाइश की थी। आज तीन महीने में शशि लौटे हैं। ये तीन महीने बड़ी कठिनता से श्यामा ने काटे हैं। कुछ तो उछाह से और कुछ लज्जा से श्यामा का कलेजा धक्-धक् हो रहा है। शशि के पास जाने में उसे कुछ भय-सा लगता है। हल्के फिरोजी रंग की रेशमी साड़ी पहने श्यामा अपने कमरे में खड़ी पति के पास जाने की बात सोच रही थी। घड़ी-घड़ी उसके माथे पर पसीना आ रहा था, जिसे वह रूमाल से पोंछ रही थी कि अचानक स्वयं शशि ही उसके पास जा पहुँचे। श्यामा इतने दिन बाद उन्हें देखकर सिकुड़कर इतनी-सी हो गयी। उसके नेत्रों के सुनहरे परदे एक बार ऊपर को उठे और एक बार शशि के मुख पर अपने हृदय का उज्ज्वल प्रकाश डाल तुरन्त नीचे आ रहे। लज्जा के भारी आवरणों को वे सहन न कर सके।

शशि ने श्यामा का हाथ पकड़कर कहा, "क्यों श्यामा! क्या हमें पहचाना नहीं? यहाँ तो आओ, कुछ बोलोगी नहीं क्या?”

श्यामा का मुख लाल हो गया। उसे पसीना आ गया। कुछ कहते न बना। क्या बोलूं-श्यामा यही सोचती रही। शशि ने उसे धीरे-धीरे गोद में बैठाकर उसका पसीना पोंछते-पोंछते कहा, "क्यों श्यामा! यह कैसी नाराज़गी है?”

पति से इस प्रकार दुलार पाकर श्यामा बड़ी सुखी हुई। बारम्बार स्वामी के प्रबोध करने पर श्यामा को कुछ बोलने का साहस हुआ। और उसका मुख खुला। खुलते ही मुँह से निकल पड़ा, "हमारी माला और हार क्यों नहीं लाये?” प्यारी की इस अटपटी और सरल वाणी को सुनकर शशि से न रहा गया। उसने अनगिनत बार श्यामा का मुख चूम डाला।

"लाये हैं सरकार! न लाते तो कहाँ रहते?" कहकर हार, माला तथा जवाहरात की अन्य चीजों का डिब्बा सामने रख दिया।

माला और हार को पाकर श्यामा बड़ी प्रसन्न हुई। सुख और प्रसन्नता से सारी सुध-बुध खोकर श्यामा पति की छाती पर झुक गयी। उस दिन शशि ने सब दाम भर पाये। ये सब जेवर उसने कोई साढ़े तीन लाख के खरीदे थे।

एक वर्ष बाद वह हारमोनियम पर मधुर ध्वनि से गा रही थी। शशि मुग्ध होकर एकचित उस चन्द्रमा से बहते अमृत को पी रहे थे। उनकी आँखें उसी चन्द्र-मुख पर थीं। इससे अधिक सुन्दरता हो सकती है या नहीं शशि यही सोच रहे थे। अचानक उनका सोच एकदम भंग हो गया। सामने से उनके बड़े मुनीम दौड़े हुए आये। उनके मुख की हवाइयाँ उड़ रही थीं। आते ही उनके मुख से निकला, "सर्वनाश, सर्वनाश हो गया!” शशि धीरज से बोले, "हुआ क्या? बात तो बोलो?” मुनीम जी ने एक तार उनके सामने पटककर कहा, "वह हमारे तीनों जहाज़ जो चीन से आ रहे थे, डूब गये; और साढ़े उन्चास लाख पर पानी फिर गया।”

"हैं!” शशि के मुख से यही निकला और सूखे वृक्ष की तरह धड़ाम से पलंग पर गिर पड़े।

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